शिरीष सप्रे
वीर सावरकरजी ज्ञानमार्गी होने के साथ ही हर एक विषय का स्वतंत्र एवं मूलगामी विचार करनेवाले होने के कारण उनकी विचार सृष्टि बहुरंगी है। जिसके कारण जनसाधारण मंत्रमुग्ध सा हो जाता है। बुद्धि प्रामाण्यता एवं इहवादी दृष्टिकोण होने के कारण कई बार वे चार्वाकवादी भी लगते हैं। क्योंकि, इहलोक और केवल इहलोक को माननेवाला व्यक्ति और समाज के हित देखने के लिए दंडनीति को माननेवाले चार्वाक का विचार करें और सावरकरजी के बुद्धिवादी सामाजिक मतों को देखें तो वे चार्वाक कुल के ही लगते हैं।
सावरकरजी के सामाजिक विचारों के महत्वपूर्ण सूत्र हैं बुद्धिप्रामाण्य और प्रत्यक्षनिष्ठा और इसी विज्ञाननिष्ठ भूमिका से उन्होंने हिंदूधर्म की सामाजिक रुढ़ियों की समीक्षा की थी। उदा. 1935 में डॉ. आंबेडकरके संभावित धर्मांतरण के संबंध में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था ''चाहें तो डॉ. आंबेडकर एक बुद्धिवादी संघ निकालें।"" इस पत्रक में सावरकरजी ने इस बुद्धि संघ के आधार तत्त्वों