Sunday, 5 February 2012

कट्टरता के समक्ष समर्पण

यह प्रश्न तसलीमा नसरीन ने भारतीय नेताओं, बुद्धिजीवियों से पूछा है। तस्लीमा की आत्मकथा निर्वासन का विमोचन समारोह कोलकाता पुस्तक मेले में रद कर दिया गया, क्योंकि इस्लामी कट्टरपंथियों ने विरोध किया। पुस्तक अभी सामने भी नहीं आई, पढ़ना तो दूर रहा। लेखिका भी कार्यक्रम में उपस्थित न रहने वाली थीं। फिर भी कट्टरपंथियों को मेले में उसके विमोचन पर आपत्ति थी। उनकी धमकी के बाद अधिकारियों ने कार्यक्रम रद कर दिया। इसी पर तसलीमा ने भारतवासियों से पूछा है कि मजहबी कट्टरपंथियों से कितने समय तक डरेंगे?
यह प्रश्न हमारे दो महापुरुषों की उक्ति भी याद दिलाता है। पहली श्रीअरविंद की, जब उन्होंने सौ वर्ष पहले (4 सितंबर 1909) उसी बंगाल में विविध मुस्लिम आपत्तियों और उन्हें संतुष्ट करने के प्रयासों पर कहा था कि प्रत्येक ऐसा कार्य जिस पर कुछ मुसलमानों को आपत्ति हो अब वर्जित कर दिया जा सकता है, क्योंकि उससे शांति भंग हो सकती है और कुछ-कुछ ऐसा लगने लगा है कि कहीं वह दिन न आ जाए जब इसी तर्कसंगत आधार पर हिंदू मंदिरों में पूजा करना भी वर्जित कर दिया जाए। दूसरा कथन 1946 में डॉ. अंबेडकर का था कि मुसलमानों की मांगें हनुमानजी की पूँछ की तरह बढ़ती जाती हैं।
इन दोनों कथनों के साथ तसलीमा के प्रश्न को जोड़कर देखने-समझने की आवश्यकता है। यदि तसलीमा की बात में
किसी निजी पूर्वाग्रह की शंका हो तो उन दो मानवतावादी चिंतकों की टिप्पणियों से वह मिट जाएगी। हाल में जयपुर साहित्य सम्मेलन में सलमान रुश्दी की वीडियो कांफ्रेंसिंग तक को इसी तरह धमकियों से रोक दिया गया। मजहबी उग्रता के समक्ष झुक कर कोई वास्तविक शांति, समाधान पाने की चाह मृग-मरीचिका है। यह केवल तसलीमा या रुश्दी की बात नहीं। जब श्रीअरविंद या डॉ. अंबेडकर ने अपना अवलोकन दिया था तब तसलीमा या रुश्दी पैदा भी न हुए थे।

भारत का विभाजन उसी दुराशा में स्वीकार कर लिया गया था कि इससे मुस्लिम समस्या (नेहरू के शब्द) से मुक्ति मिलेगी। उसके लिए बंगाल और पंजाब में लाखों हिंदुओं, सिखों की बलि दे दी गई, जो अपने नेताओं के भरोसे रोज-मर्रे के काम में लगे थे। उसके बाद भी क्या मिला? वह समस्या तो जस-की-तस है। मजहबी कट्टरपंथियों के साथ शांति और सद्भाव कभी हासिल नहीं होगा, जब तक कि सिद्धांतहीन, भीरु और तात्कालिक उपाय की चाह बनी रहेगी। इसीलिए, तसलीमा का सवाल हमारे देश के कर्णधारों के लिए सौ वर्ष से एक यक्ष प्रश्न बन कर खड़ा है। तसलीमा ने तो उसे बस दोहराया है। मगर जब ऐसे सवाल उठते हैं तो विचार करने से कतराने का प्रयास होता है। उग्रवादियों, आतंकवादियों के भयंकर से भयंकर कारनामों पर टका-सा बयान आ जाता है कि आतंकवादियों का कोई मजहब नहीं होता, मगर देवबंदी फतवों या मजहबी कट्टपंथियों की असंवैधानिक मांगों और कारनामों पर पूरी चुप्पी साध ली जाती है।

क्या भारत में स्वतंत्रता, लोकतंत्र और संविधान के दिन इने-गिने रह गए हैं? इन्हें ध्वस्त करने का मजहबी दुस्साहस जितना बढ़ता जाता है, हिंदू उच्च वर्ग की कायरता उसी अनुपात में बढ़ रही है। तसलीमा नसरीन पर इससे पहले हैदराबाद में कातिलाना हमला हुआ। उसमें तीन मुस्लिम विधायक भी शामिल थे, जिन्होंने पुन: न चूकने की घोषणा की। उन पर क्या कार्रवाई हुई? कुछ नहीं। तसलीमा को भारत से निकालने की मांग भी होती रही है, किंतु आतंकवादियों के लिए भी मानवाधिकारों के जोशीले भाषण देने वाले बुद्धिजीवी तस्लीमा के पक्ष में एक शब्द नहीं कहते। शाह बानो, अमीना, गुडि़या, इमराना जैसे कितने भी हृदय-विदारक प्रसंग क्यों न उठें, जेंडर जेंडर रटने वालों का स्वर तब नहीं सुनाई पड़ता। कहा जाता है कि यह सब वोट के लिए किया जाता है। मगर किसे वोट मिला है? वह वोट गांधीजी जैसे नेता को भी नहीं मिला, जिसने मुसलमानों को जीतने (नेहरू के शब्द) के लिए सब कुछ दांव पर लगा दिया। उन पर भी एक हिंदू लीडर का ठप्पा लगाया गया। तब उपाय क्या है? इस्लामी इतिहास, सिद्धांत और व्यवहार को देखते हुए श्रीअरविंद ने कोई सौ वर्ष पहले ही कहा था कि चाटुकारिता से हिंदू-मुस्लिम एकता नहीं बनाई जा सकती। हर बार हिंदुओं की उदारता ने रास्ता दे दिया है। सबसे अच्छा समाधान यही होगा कि हिंदुओं को संगठित होने देना चाहिए और तब हिंदू-मुस्लिम एकता स्वयं अपनी देखभाल कर लेगी, इससे अपने आप समस्या सुलझ जाएगी। नहीं तो हम इस झूठे संतोष में आराम करने लगते हैं कि हमने एक कठिन समस्या का समाधान कर लिया है, जबकि वास्तव में हमने केवल उसे टाला भर है।

देश का विभाजन और बाद में भी पाकिस्तान के साथ अनुभवों एवं देश के अंदर मुस्लिम नेताओं की स्थाई रुष्ट नीति को और किसी तरह समझा नहीं जा सकता! इस संपूर्ण समस्या का समाधान और बिल्कुल सटीक, शांतिपूर्ण उपाय भी श्रीअरविंद ने 1926 में ही बता दिया था कि मुसलमानों को तुष्ट करने का प्रयास मिथ्या कूटनीति है। सीधे हिंदू-मुस्लिम एकता उपलब्ध करने की कोशिश के बजाए यदि हिंदुओं ने अपने को राष्ट्रीय कार्य में लगाया होता तो मुसलमान धीरे-धीरे अपने-आप चले आते। तभी मजहबी कट्टरपंथी कमजोर होंगे और विवेकशील मुस्लिमों को भी बल मिलेगा। तुष्टीकरण की नीति केवल कट्टरपंथियों को मजबूत करती है। दुर्भाग्य से आज भारत का हिंदू राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग पुन: उसी तुष्टीकारी राह पर चल रहा है। वह कोलकाता और हैदराबाद ही नहीं, मराड, गोधरा, असम, कश्मीर, सभी जगहों पर मजहबी कट्टरपंथियों से डरते हुए ही नीति तय करता है। वह तसलीमा के प्रश्न से आंख चुराकर, इस्लामियों की मनमानी मांगें मानकर शांति-व्यवस्था खरीदना चाहता है।
शंकर शरण (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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