Thursday 9 February 2012

कामरेड ईसा मसीह?

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजकल केरल में बड़ी मजेदार राजनीतिक बहस चल रही है। इस बहस में अभी तो सिर्फ स्थानीय कम्युनिस्ट नेता और पादरी लोग ही उलझे हैं, लेकिन यह बहस यदि थोड़ी लंबी जाए तो यह विश्व-स्तर की भी बन सकती है। यह तो सबको पता है कि 10-15 वर्षों से विश्व के सारे कम्युनिस्ट अपने आप को अनाथ-सा महसूस कर रहे हैं। सोवियत संघ खुद तो बिखर ही गया, अब लेनिन और स्टालिन भी इतिहास के नेपथ्य में चले गए। चीन ने भी पूंजीवादी रास्ता पकड़ लिया। पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देश अब पश्चिमी यूरोपीय संघ के सदस्य बनते चले जा रहे हैं। ऐसे में हमारे भारत के मार्क्सवादियों ने जबर्दस्त वैचारिक पैंतरा मारा है। यह पैंतरा, भारत में ही नहीं, सारे विश्व में तहलका मचा सकता है।


केरल की मार्क्सवादी पार्टी ने घोषणा की है कि वह ईसा मसीह को एक क्रांतिकारी नेता मानती है। उन्होंने चोरों, मुनाफाखोरों और ढोंगी पुरोहितों के खिलाफ जमकर अभियान चलाया था। सूदखोरों, ठगों और चोरों ने ही मिलकर उनको सलीब पर चढ़वाया था। वे सब उनके वर्ग-शत्रु थे। पार्टी ने अपने सम्मेलन की तैयारी करते हुए ईसा मसीह के बड़े-बड़े चित्र भी बनवाए हैं, जिन्हें प्रदर्शनी में लगवाया जाएगा। मार्क्सवादी पार्टी के इस नए पैंतरे पर केरल का कैथोलिक चर्च काफी लाल-पीला हो रहा है।

उसका कहना है कि ईसा को इसलिए उछाला जा रहा है कि कम्युनिस्ट बिल्कुल दिवालिए हो गए हैं। वे अचानक आस्तिक कैसे हो गए हैं? क्या वे अपने वर्ग-संघर्ष और हिंसक क्रांति के सिद्घांत को छोड़कर ईसा के अहिंसा और प्रेम के सिद्घांत को अपनाने के लिए तैयार हैं? केरल के गैर कैथोलिक ईसाई नेताओं का कहना है कि ईसा के बारे में मार्क्सवादियों की समझ ईसाइयों से भी बेहतर है। कांग्रेसी सबसे ज्यादा खफा है। मुख्यमंत्री ओमान चांडी ने कहा है कि ईसा को कामरेड कहकर ईसाइयों को चोट मत पहुंचाइए। यह शैतानी हरकत है।

इसमें शक नहीं कि केरल के मार्क्सवादी ईसा की शरण में इसलिए जा रहे है कि अब उनके पास कोई प्रतीक-पुरूष रहा नहीं, लेकिन वे ऐसा कर रहे हैं तो यह मार्क्सवाद का स्थानीयकरण ही है। इसमें बुराई क्या है? जाहिर है कि वे ईसा और बाइबिल की हर बात कभी स्वीकार नहीं करेंगे, लेकिन मार्क्स जिसे अफीम कहते थे, उस धर्म में भी यदि मार्क्सवादियों ने अपने कोई दवा ढूंढ निकाली है तो पादरियों को तो खुश ही होना चाहिए। कार्ल मार्क्स और ईसा मसीहा दोनों ही यहूदी थे और दोनों ने ही अपने धर्म से बगावत की थी। केरल के ईसाई यदि मार्क्सवादी फतवे से राजी हो जाएं तो विश्व के ईसाई जगत को यह भारत की अप्रतिम देन सिद्घ होगी।
(लेखक : वरिष्ठ पत्रकार एवं भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)

1 comment: