Tuesday, 19 July 2011

सांप्रदायिक हिंसा निषेध विधेयक:कांग्रेस का अराष्ट्रीय चेहरा

कांग्रेस के मूल स्वभाव और चरित्र को समझे बिना वर्तमान राजनीति के पतन का विश्लेषण संभव नहीं। विडंबना यह है कि कांग्रेस के सत्ता केंद्रित अहंकारी स्वभाव का प्रसार भारत की राजनीति में घर कर चुका है। सत्ता के लिए किसी भी सीमा तक जाना तथा राजनीति में वोट लाभ के लिए अनुपयोगी जनकल्याण को छोड़ देना इसका स्वभाव बन गया है। सत्ता की आतुरता और संघर्ष से घबराहट के कारण ही कांग्रेस ने 1947 में पाकिस्तान का प्रस्ताव स्वीकार करके भारत का विभाजन कराया। पचास के दशक में चीन के हाथ तिब्बत खोया और 1.25 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि चीन तथा पाकिस्तान के कब्जे में जाने दी। लेडी एडविना माउंटबेटन के प्रभाव में नेहरू कश्मीर का मामला सरदार पटेल की सहमति के बिना राष्ट्रसंघ में ले गए जिस कारण धारा 370 का ऐसा संवैधानिक विधान लागू करवाया जो बाद में अलगाववाद तथा आतंकवाद के पोषण का सबसे बड़ा कारण बन गया। कांग्रेस की इसी सत्ताभोगी मानसिकता के कारण 1962 में चीन का हमला हुआ। 1965 में हम जीतकर भी हारे तो 1971 में इंदिरा गांधी को मिले अभूतपूर्व सर्वदलीय प्रशंसा और समर्थन के बावजूद शिमला समझौते में हम कश्मीर का मसला निर्णायक तौर पर हल नहीं कर सके। हालांकि उस समय पाकिस्तान की गर्दन हमारे हाथों में थी। इसी कारण उस समय वरिष्ठ कवि सोम ठाकुर ने लिखा था- 'इतिहास लिखा था खून से जो स्याही से काट दिया हमने।'
चुनावी लाभ के लिए दंगे, बेवजह पुलिसिया कार्रवाई, ब्ल्यू स्टार तथा 1984 के सिख विरोधी दंगों आदि से उसका सत्ताविलासी चरित्र और इतिहास साबित होता है। 1947 के बाद से आज तक सबसे ज्यादा हिंदू-मुस्लिम दंगे केवल कांग्रेस शासित राज्यों में हुए। संप्रग-1 व 2 के दौरान कांग्रेस ने सच्चर समिति से लेकर हज यात्रियों के लिए जरूरी पासपोर्ट तक में पुलिस जांच की जरूरत खत्म करके सामाजिक खाई पैदा करने का प्रयास किया है जिसे अच्छी तरह समझा जा सकता है।
आम जनता प्राय: इतिहास को जल्दी भुला देती है। कांग्रेस कितनी निर्मम और संवेदनहीन हो सकती है इसका सबसे भयानक उदाहरण यदि 1975 में लागू आपातकाल है तो ताजा उदाहरण सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा प्रस्तावित सांप्रदायिक हिंसा निषेध विधेयक है। यह विधेयक कांग्रेस के विकृत एवं हिंदू विरोधी अराष्ट्रीय चरित्र का सबसे निकृष्ट उदाहरण है।
इस विधेयक द्वारा न केवल हिंदुओं को आक्रामक और अपराधी वर्ग में ला खड़ा करने, बल्कि हिंदू-मुस्लिमों के बीच शत्रुता पैदा कर हर गली-कस्बे में दंगे करवाने की साजिश है। यदि यह औरंगजेबी फरमान कानून की शक्ल लेता है तो किसी भी हिंदू पर कोई भी मुस्लिम नफरत फैलाने, हमला करने, साजिश करने अथवा नफरत फैलाने के लिए आर्थिक मदद देने या शत्रुता का भाव फैलाने के नाम पर मुकदमा दर्ज करवा सकेगा और उस बेचारे हिंदू को इस कानून के तहत कभी शिकायतकर्ता मुसलमान की पहचान तक का हक नहीं होगा। इसमें शिकायतकर्ता के नाम और पते की जानकारी उस व्यक्ति को नहीं दी जाएगी जिसके खिलाफ शिकायत दर्ज की जा रही है। इसके अलावा शिकायतकर्ता मुसलमान अपने घर बैठे शिकायत दर्ज करवा सकेगा। इसी प्रकार यौन शोषण व यौन अपराध के मामले भी केवल और केवल मुस्लिम हिंदू के विरुद्ध दर्ज करवा सकेगा और ये सभी मामले अनुसूचित जाति और जनजाति पर किए जाने वाले अपराधों के साथ समानांतर चलाए जाएंगे। इसका मतलब है कि संबंधित हिंदू व्यक्ति को कभी यह नहीं बताया जाएगा कि उसके खिलाफ शिकायत किसने दर्ज कराई है? इसके अलावा उसे एक ही तथाकथित अपराध के लिए दो बार दो अलग-अलग कानूनों के तहत दंडित किया जाएगा। यही नहीं, यह विधेयक पुलिस और सैनिक अफसरों के विरुद्ध उसी तरह बर्ताव करता है जिस तरह से कश्मीरी आतंकवादी और आइएसआइ उनके खिलाफ रुख अपनाते हैं। विधेयक में 'समूह' यानी मुस्लिम के विरुद्ध किसी भी हमले या दंगे के समय यदि पुलिस, अ‌र्द्धसैनिक बल अथवा सेना तुरंत और प्रभावी ढंग से स्थिति पर नियंत्रण प्राप्त नहीं करती तो उस बल के नियंत्रणकर्ता अथवा प्रमुख के विरुद्ध आपराधिक धाराओं में मुकदमे चलाए जाएंगे। कुल मिलाकर हर स्थिति में पुलिस या अ‌र्द्धसैनिक बल के अफसरों को कठघरे में खड़ा होना होगा, क्योंकि स्थिति पर नियंत्रण जैसी परिस्थिति किसी भी ढंग से परिभाषित की जा सकती है। इस विधेयक की धाराएं किसी भी सभ्य, समान अधिकार संपन्न एवं भेदभावरहित गणतंत्र के लिए ईदी अमीन और सऊदी अरब के शाहों की तरह ही अन्य आस्थाओं के लोगों के प्रति नफरत एवं आक्रामकता का दर्शन कराती हैं।
प्रसिद्ध न्यायविद जेएस वर्मा और न्यायमूर्ति बीएल श्रीकृष्ण ने भी इस विधेयक को एकतरफा झुकाव वाला, केंद्र एवं राज्यों में अफसरशाही निर्मित करने वाला और केंद्र-राज्य संबंधों में नकारात्मक असर डालने वाला बताया है। जरा देखिए, इस विधेयक को बनाने वालों ने सांप्रदायिक हिंसा रोकने के लिए जिस सात सदस्यीय समिति के गठन की सिफारिश की है, उसमें चार सदस्य मजहबी अल्पसंख्यक होंगे। विधेयक मानकर चलता है कि यदि समिति में अल्पसंख्यकों यानी मुसलमानों का बहुमत नहीं होगा तो समिति न्याय नहीं कर सकेगी। अपेक्षा है कि ये सात सदस्य किसी भी सांप्रदायिक हिंसा को रोकेंगे, जांच पर नजर रखेंगे, आपराधिक मुकदमों, पेशियों, राहत कार्यो तथा पुनर्वास को अपनी देखरेख में चलाएंगे। आखिर ये सात सदस्य होंगे या फरिश्ते अथवा फिर आपातकाल के दारोगा?
[तरुण विजय: लेखक राज्यसभा के सदस्य हैं] 

1 comment:

  1. ye angrejo ke manas - putr hai.....inka bas ek hi kaam hai "foot dalo aur satta pao"....in madam ke mayeke ( itly ) ka itihaas to yahi hai.... isliye mujhe kuchh khas hairani nahi hai....unse yahi umeed ki ja sakti hai....

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