Monday, 26 December 2011

Muslims attack on a Hindu Temple in Denmark, डेन्मार्क स्थित हरे कृष्ण मंदिर पर मुसलमानों द्वारा आक्रमण

हिंदुओ, सामर्थ्यशाली हिंदुत्ववादी संगठन एवं मुसलमानों की दास्यता करने में स्वयं को धन्य समझने वाले हिंदुद्वेषी कांग्रेसी नेता इस पर कोई कृति नहीं करेंगे । इसलिए आप ही कृतिशील हो जाएं ! हिंदुओं को पारंपरिक वेश परिधान न करने की विनती करने वाला स्थानीय प्रशासन क्या मुसलमानों को ऐसा सूचित करने का साहस दिखाएगा ?

डेन्मार्क देश ईसाई बहुसंख्यक है । इस देश में यदि हिंदुओं को अपने धर्मानुसार आचरण करना असंभव है, तो पाक, बांगलादेश, मलेशिया एवं इंडोनेशिया के समान मुसलमान बहुसंख्यक राष्ट्र में हिंदुओं की स्थिति क्या होगी, इसका हम विचार भी नहीं कर सकते । इस घटना से यह स्पष्ट होता हैं कि, हिंदुओंके लिए संपूर्ण विश्वमें एक भी सुरक्षित स्थान नहीं है । यह स्थिति परिवर्तित करने हेतु हिंदु राष्ट्र स्थापित करना अनिवार्य है ।

Thursday, 22 December 2011

भारत के इस्लामीकरण की तैयारी

जिस तरह से सारी राजनीतिक पार्टियाँ भारत में मुसलमानों के अधिकारों के प्रति चिंतित हैं उससे तो ऐसे ही लगता है कि कहीं भारत इस्लामिक देश ही घोषित न हो जाये | वैसे भी देखा जाय तो यहाँ हिन्दुओं का ही शोषण हो रहा है | क्योंकि हिन्दू शुद्र, बनिया, ब्राह्मण, जाट, गुजर, क्षत्रिय आदि मे बंटा हुआ है जबकि मुसलमान एक हैं, ईसाई एक हैं, सिक्ख एक हैं परन्तु हिन्दुओं में जातियां गिनीं ही नही जा सकती हैं | जिन हिन्दुओं को मुग़लों ने जबरदस्ती मुसलमान बनाया, आजादी के बाद भी किसी भी हिन्दू संगठन ने उनको वापिस हिन्दू बनाने की पहल नही की | किसी ने सोचा तक नहीं पहल तो बाद में ही होती | यह बात इसलिए लिखी जा रही है क्योंकि आने वाला समय हिन्दुओं के लिए अच्छा नहीं दिख रहा है | क्या हिन्दुओं की रक्षा हेतु कोई संगठन ईमानदारी से प्रयत्नशील है, राजनीति करना अलग बात है परन्तु सार्थक प्रयास करना दूसरी बात | बात मात्र दो वर्ष पहले की है जब भारत में हरिद्वार में कुम्भ चल रहा था तब लाखों की संख्या मे हिन्दू और हिन्दू संत महात्मा और हिन्दुओं की राजनीति पोषित करने वाले संगठन हरिद्वार में सक्रिय थे | ठीक उसी समय भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने भगवान श्री कृष्ण और राधाजी के बारे मे एक घोर आपत्ति जनक टिप्पणी की थी परन्तु उस टिप्पणी के विरुद्ध एक भी नही बोला |

हिन्दुओं का आखिर दुश्मन कौन ?

आये दिन समाचार मिलते रहते हैं कि अमुक स्थान पर इतने हिन्दुओं ने ईसाई या इस्लाम धर्म कबूल कर लिया | सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि आखिर धर्म परिवर्तन का विकल्प केवल हिन्दुओं के लिए ही क्यों खुला है ?अब दो ही कारण हो सकते हैं कि या तो हिन्दू स्वेच्छा से धर्म परिवर्तन कर रहे हैं या परिच्छा से अर्थात किसी मजबूरी से अर्थात उनसे उनकी इच्छा के विरुद्ध उनको अन्य धर्मों मे जबरदस्ती परिवर्तित किया जा रहा है | कहने को तो कुछ भी तर्क वितर्क दे दो परन्तु इतना तो बिलकुल सत्य है कि सुबह उठते  ही शायद ही कोई मनुष्य मांस भक्षण शुरू कर दे हालांकि कुछ अपवाद हो सकते हैं परन्तु स्वाभाविक रूप से नैसर्गिक सिद्धांत से भी मनुष्य शाकाहारी है क्योंकि उसकी आंतें भी अन्य शाकाहारी जीवों के तरह ही लम्बी होती हैं जो एक विशेष पदार्थ सेलुलोज को पचाने मे सहायक होती हैं जो कि वनस्पतियों मे ही पाया जाता है इसलिए स्वाद या जिव्हा के चटकारे हेतु ही कोई मनुष्य उन धर्मों को स्वीकार नही करेगा जिनमे मांसभक्षण ज्यादा होता है |
और अब तो मांसभक्षी धर्मों के अनुयायी भी शाकाहार को ही पसंद करने लगे हैं | कभी किसी ईसाई या मुस्लिम धर्म के अनुयायी को भी क्या कहीं हिन्दू बनते देखा है, शायद नही देखा होगा, अतः यह नहीं कह सकते कि उनको शाकाहार तो पसंद है लेकिन सिर्फ  शाकाहार के लिए वे हिन्दू बन जायें | इसलिए भोजन व्यंजन कोई कारण नही अतः अन्य कारण खोजने ही होंगे |

It is time we think of our own solutions:Bhagwat

Shri Mohanrao Bhagwat, Sar Sangh Chalak of the Rashtriya Swayamsevak Sangh. was speaking at a symposium “Global Scenario: Bharat, Sangh and we.

December 19, 2011, New Delhi: Political interference is the only impediment towards construction of a grand temple of Lord Ram at Ayodhya, said Shri Mohanrao Bhagwat, Sar Sangh Chalak of the Rashtriya Swayamsevak Sangh. Shri Bhagwat was speaking at a symposium “Global Scenario: Bharat, Sangh and We” in front of a huge gathering of lecturers, professors and teachers of Delhi.
Shri Bajrang Lal Gupta, Shri Shyam Sunder Agarwal and Shri Kulbhushan Ahuja were present on the dais along with Shri Mohanrao Bhagwat.

Wednesday, 30 November 2011

Pak Hindus want to remain in India

Perpetual fear of being targeted in their country has led a group of 140 visiting Pakistani Hindus to remain in India and seek shelter wanting to make Delhi their new home.
The group from Sindh province came to India on a tourist visa, which has since expired, and does not want to return to to their birthplace as they feel their future there will be in jeopardy.

Living in penury and with their visas having expired two months back, the 27 families from a village in Matiari district near Hyderabad feel they will be secure in India.
Currently living in tents put up by an organisation in Majnu Ka Tilla in north Delhi, the old, the young and the children have only one appeal to the Indian Government — extend visas and give them proper accommodation in the city.

Wednesday, 16 November 2011

Communal Violence Bill – a serious concern

Source – http://vikramwalawalkar.blogspot.com/2011/07/communal-violence-bill-serious-concern.html
 
Prevention of Communal and Targeted Violence (Access to Justice and Reparations) Act, 2011
The Central Government is all set to rip apart the secular fabric of our nation. Will it be playing the old game of ‘divide and rule’ to secure its victory in upcoming elections?
Our country has evidenced communal hatred, violence and tensions for long. Cause may differ, but the result is the same – unrest in society and betrayals between communities. Can we say that existing laws are insufficient to control communal disharmony? Or, implementation is lacking? Is a new Act really needed?

Aims and objectives:
What the Act really aims at? Is there any hidden agenda to gain political mileage? Answers to such and other questions must be searched for by a secular (in its truest sense) and nationalistic mind.

Thursday, 6 October 2011

जेएनयू में डॉ सुब्रमनियम स्वामी, हिन्दू संघर्ष समिति की संगोष्ठी


नई दिल्ली. 02 अक्टूबर| रविवार को जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक को लेकर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया. हिन्दू संघर्ष समिति और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के तत्वाधान में आयोजित इस संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में जनता पार्टी के अध्यक्ष और सांसद डॉ सुब्रमनियम स्वामी मौजूद थे. डॉ स्वामी को सुनने के लिए बड़ी मात्रा में विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राएं उपस्थित थे. डॉ स्वामी के भाषण को सभी ने बहुत ध्यानपूर्वक सुना. साथ ही जेएनयू के स्कोलर्स ने इस विषय पर डॉ स्वामी से सवाल-जवाब भी किया जिसका डॉ स्वामी ने बड़े धैर्यपूर्वक जवाब दिया और उन्हें संतुष्ट किया.

हिन्दू संघर्ष समिति के अध्यक्ष श्री अरुण विक्रमादित्य भी इस अवसर पर मौजूद थे और उन्होंने भी सभा को संबोधित किया. इस संगोठी का आयोजन अम्बा शंकर वाजपेयी और गायत्री दीक्षित के नेतृत्व में जेएनयू इकाई द्वारा किया था. इस मौके पर विष्णु गुप्ता, विशाल कुमार, स्वतंत्रदीप कौशिक आदि कार्यकर्ता भी मौजूद थे.

Friday, 30 September 2011

Love Jihad's baby machines

Source-http://www.mid-day.com/news/2009/oct/301009-Islamic-body-Love-Jihad-Hindu-Christian.htm

By: Ketan Ranga



By: Ketan Ranga
Fundamentalist Islamic body gets young recruits to allegedly lure, 'love', bed women to convert and make them breed a brood
Over 2,000 girls missing from different places in Kerala from 2005 onwards, may have been lured into marriage, converted to Islam and repeatedly raped to produce children a brood of at least four – say Hindu and Christian groups in south India.

Monday, 26 September 2011

सांप्रदायिक हिंसा बिल देश के लिए घातक:भागवत

जागरण ब्यूरो/एजेंसी, जम्मू. राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत ने सांप्रदायिक हिंसा बिल को झगड़ा फैलाने वाला बताते हुए कहा कि यह देश के नागरिकों में भेदभाव पैदा करेगा। उन्होंने स्वयंसेवकों से आह्वान किया कि वे निजी स्वार्थ से उपर उठकर देश के लिए काम करें। उन्होंने केंद्र की यूपीए सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि इसमें बाहरी तथा आंतरिक खतरों से निपटने की इच्छाशक्ति नहीं है और न ही सरकार पड़ोसियों द्वारा देश की सीमा के साथ की जा रही छेड़छाड़ को रोकने में सक्षम है। 

जम्मू दौरे पर भागवत ने वेद मंदिर जम्मू में रविवार सुबह स्वयंसेवकों को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि आने वाले सांप्रदायिक हिंसा बिल में जिस तरह के प्रावधान शामिल किए जा रहे हैं वे सही नहीं है। जिस किसी के दिमाग की

हिन्दुओं को समाप्त करने की साजिश

सर्वज्ञात है कि हिन्दुओं को दबाने, उन्हें समाप्त करने और हिंदुस्तान को खंडित करने की साजिश रची जा रही है. इसमें विदेशी ताकतों का तो हाथ है, देश के भी अनेक लोग जिनके आका देश के बहार हैं, वे जी जान से इस षड़यंत्र को सफल बनाने में लगे हुए हैं. इसका ताजा उदाहरण व्यापारिक कंपनी "मुथूट फ़ाइनेंस एण्ड गोल्ड लोन कम्पनी” का अपने कर्मचारियों के लिए जारी किया गया ड्रेस कोड के नियम हैं.
इस बारे में अधिक जानकारी के लिए निम्न लिंक पर जाएँ - http://blog.sureshchiplunkar.com/2011/09/muthoot-finance-anti-hindu-circular-ban.html

क्या सिंदूर, बिंदी लगाना या कलावा बंधना, तिलक लगाना सांप्रदायिक है या फिर इससे लोग नाराज होते हैं. लेकिन कंपनी इस सब का विरोध करते हुए इन्हें प्रतिबंधित करती है.  इस सम्बन्ध में आदेश पत्र कि प्रति भी संलग्न है -
वास्तव में ये सब भारत विरोधी षड़यंत्र का एक हिस्सा है.धीरे-धीरे हिन्दू धर्म और हिंदुस्तान के दुश्मन अपने काम में लगे हुए हैं. हिन्दू संघर्ष समिति "मुथूट फ़ाइनेंस एण्ड गोल्ड लोन कम्पनी” का विरोध करती है और सभी से अपील करती है कि ऐसी कंपनियों का बहिष्कार किया जाये. हम इस सम्बन्ध में उचित कदम उठाएंगे और प्रशासन पर भी कार्रवाई करने के लिए दबाव बनायेंगे.

Thursday, 22 September 2011

लखनऊ में हिन्दू संघर्ष समिति का कार्यक्रम

हाल ही में लखनऊ में हिन्दू संघर्ष समिति का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ. सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक के विरोध में ये कार्यक्रम किया गया. लखनऊ के राजा बाजार में आयोजित इस कार्यक्रम में रितेश आनंद त्रिवेदी के नेतृत्व में बड़ी संख्या में युवाओं ने हिस्सा लिया. कार्यक्रम में इस विधेयक के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई और इसके भविष्य के घातक परिणामों से अवगत कराया गया.

रितेश आनंद त्रिवेदी ने संबोधित करते हुए कहा कि ये बिल हिन्दुओं को उनके ही देश में पूरी तरह विकलांग कर देने के लिए है. ये एक सरकारी प्रयास है जिसके माध्यम से मुसलमानों के तलवे चाटने वाली सरकार हमें पंगु बना देना चाहती है. उन्होंने कहा कि लेकिन हम इसे किसी भी सूरत में पास नहीं होने देंगे चाहे इसके लिए हमें अपने प्राणों की बाजी भी क्यों न लगानी पड़े. 

Wednesday, 21 September 2011

Communal violence bill – strongly opposed by Jayalalitha; says it is fascism

Tamil Nadu Chief Minister Jayalalithaa slammed the draft communal violence bill as “fascist” which would keep the states under constant threat of dismissal and give sweeping powers to the Centre.
In a hard-hitting attack on the proposed bill, Jayalalithaa said that under the garb of preventing communal and targeted violence, the Prevention of Communal Violence Bill was yet another “blatant atttempt” to totally bypass the state governments.
The bill concentrates all powers in the Centre rendering the state governments absolutely powerless and totally at the mercy of the Centre, she said in a strongly-worded statement.

Communal Violence Bill an attempt to appease minorities: PK Dhumal

The BJP government in Himachal Pradesh today opposed the proposed bill against communal violence alleging it was an attempt to appease the minorities.
Speaking at the National Integration Council meeting in Delhi, Himachal Chief Minister Prem Kumar Dhumal termed "Prevention of Communal and Targeted Violence (Access to Justice and Reparations) Bill, 2011", as an "interference" in the domain of states, which is against the federal structure of the country.
He said the present laws should be effectively implemented to deal with communal violence.
Dhumal also asked the Centre to extend the industrial package for Himachal upto the year 2020 and said the

Trinamool joins NDA, non-UPA states in opposing Communal Violence Bill

Leader of opposition in the Lok Sabha Sushma Swaraj said the proposed legislation was “dangerous” as it would “encourage communalism” rather than curbing it by furthering the divide between majority and minority communities..
 

News by Livemint http://www.livemint.com/2011/09/10152552/Trinamool-joins-NDA-nonUPA-s.html

New Delhi: The proposed Communal Violence Bill on Saturday ran into trouble with NDA-ruled states and Congress ally Trinamool Congress opposing it as “dangerous” legislation and arguing that it would hurt the federal structure of the country.
At a meeting of National Integration Council (NIC) where the issue was on the agenda, NDA and chief ministers of the states ruled by it -- Madhya Pradesh, Chhattisgarh, Karnataka, Himachal Pradesh, Uttarakhand, Bihar and Punjab -- expressed opposition to the draft legislation in its current form.

Leader of opposition in the Lok Sabha Sushma Swaraj, who also attended the meeting chaired by Prime Minister Manmohan Singh, said the proposed legislation was “dangerous” as it would “encourage communalism” rather than curbing it by furthering the divide between majority and minority communities.
Dinesh Trivedi, senior leader of Trinamool Congress, a key constituent of the UPA, said his party also opposes the Bill in the present form.
Opposing the Bill, chief minister of BJD-ruled Orissa Naveen Patnaik, said it has some “objectionable” provisions which “directly affect the autonomy of states”.
Uttar Pradesh Chief Minister Mayawati, whose speech was read out in absentia, said “it is not the opportune moment to comment on the Bill”.
Bihar chief minister Nitish Kumar voiced concern over certain provisions in the Prevention of Communal and Targeted Violence (Access to Justice and Regulations) Bill 2011, saying it may create “impression” among the people at large that majority community is “always responsible for communal incidents.”
In a speech read out by senior Bihar minister Vijay Kumar Chaudhary, Kumar asked the centre to hold “thorough discussion” with state governments for making certain amendments that are warranted before introducing it in Parliament.
He specifically opposed the provision for promulgation of Article 355 of the Constitution, which gives the centre a right to intervene, in a limited area during “internal disturbance”, saying it amounted to “unnecessary interference in state’s jurisdiction”.
Madhya Pradesh Chief Minister Shivraj Singh Chauhan said the Bill was intended to meet “vested interests” and may undermine the country’s federal structure.
“The Bill expresses feeling of mistrust in the state government machinery and lacks clarity in defining crimes for organised communal violence,” he said.
“I urge the union government to have faith in the state governments and strengthen them, which in turn will strengthen the nation. If state governments are weakened to serve some vested interests, the nation will become weak and it will give impetus to parochial forces,” Chauhan said.
Questioning the need for the Bill, Chhattisgarh chief minister Raman said it went against the federal spirit as it will directly interfere with the legitimate authority of states.
“The proposed Bill has many structural loopholes. The biggest problem is that this Bill is against India’s federal structure. The national authority set up with the help of this Bill will have the power to issue directions to any state authority for any investigation,” he said.
He said that the power of maintaining law and order situation stays with a particular state and changes in this system will bring unfavourable results in the long term.
Uttarakhand chief minister Ramesh Pokhriyal Nishank asked the Prime Minister and home minister P Chidambaram to give up their desire to pass the Bill in its present form, saying the legislation would be a “big blow” to national integration.
Punjab chief minister Prakash Singh Badal said the Bill that the government was trying to bring could lead to “avoidable confrontation” between the centre and states as sections of it were a “direct transgression of states’ authority”.
He also particularly expressed opposition to provision for invoking Article 355.

Mamata Banerjee joins BJP to veto UPA's Prevention of Communal Violence Bill

India Today News, http://m.indiatoday.in/itwapsite/story?sid=150840&secid=175

The UPA government's key ally, Mamata Banerjee, on Saturday sprang up a surprise as she joined the BJP in objecting to the Prevention of Communal Violence Bill, drafted by the Sonia Gandhi-led National Advisory Council (NAC).
Mamata, apparently still miffed over the Teesta issue, skipped the National Integration Council (NIC) meeting in Delhi which was called after a gap of three years.
Her representative and West Bengal's finance minister Amit Mitra spelt out the Trinamool Congress's stand on the issue.
"Our government has serious objections to the introduction of such a Bill. The contemplated Bill is tantamount to a direct intervention of constitutional and functional powers of a state government and undermines the very principle of federalism.
"Instead of bringing such a Bill, we suggest that if serious violence breaks out in a state, the Centre should commit to give full cooperation to the state in handling such an exigency," Mitra said.
He said the discussion "on such a Bill will create confusion and generate controversy among the people". His party's leader and railway minister Dinesh Trivedi, too, said the Trinamool was opposed to the NAC's draft in its present form.
Though the Trinamool's argument against the draft Bill was different from the BJP's - which says the proposed legislation is biased against the majority community - it stunned the government.
Sensing that the UPA's key ally, as well as many chief ministers, was dead against the NAC draft, Prime Minister Manmohan Singh had to assure the gathering that states would be consulted before the Bill is introduced in Parliament and that he did not intend to disturb the federal structure.
BJP leaders Sushma Swaraj and Arun Jaitley led the charge against the NAC draft. They were strongly supported by the chief ministers of the NDA-ruled states.
Home secretary R. K. Singh later said he could not commit if the Bill would be introduced in the winter session of Parliament. "A large number of CMs expressed the view that some aspects of the draft Bill encroaches their jurisdiction... We will keep in mind the objections of the CMs before finalising the Bill," he said.
Speeches read out on behalf of Bihar CM Nitish Kumar and his Uttar Pradesh counterpart Mayawati, who were both absent, showed the criticism was not limited to the BJP. "…(An) impression may be created among the people at large that the majority community is always responsible for communal incidents, which may cause sharp reactions among people of the majority communities. This will ultimately go against the minorities and will have adverse effect over the basic objective of the Bill," Nitish said.
Criticising the provision which he said "amounts to unnecessary interference in the state government's jurisdiction", Nitish said the Centre can invoke constitutional provisions if a state fails in its "raj dharma". Mayawati said she won't comment on the Bill as she had not seen the draft. She slammed the Centre for seeking the states' views without sending them the draft.
Orissa chief minister Naveen Patnaik and Punjab's Parkash Singh Badal, too, were of the view that the Bill steps on the state's powers and is dangerous for federalism.
Earlier, Sushma criticised the NAC draft as a "dangerous one" and said: "This Bill considers no person as a citizen or a human… It only divides India as a majority and a minority community."
Absentee CMs
Eight CMs, including two of Congress- ruled states, skipped the NIC meeting - Mamata Banerjee, Narendra Modi, Jayalalithaa, Nitish Kumar, Mayawati, Parkash Singh Badal, Ashok Gehlot and Ooman Chandy.
Objections to the bill
The Prevention of Communal and Targeted Violence (Justice and Reparation) Bill has been drafted by the NAC headed by Sonia Gandhi It will apply to communal violence targeted against religious and linguistic minorities and the SC/STs There are two main criticisms against the Bill - it makes a distinction between victims on grounds of religion & language; it encroaches upon states' powers that is against federal structure The Bill makes provisions for probe, trial, penalty & damages for violence against minorities It hurts the federal structure by touching upon provisions which are the exclusive domain of the states, such as compensation It allows the central govt to declare cases of communal violence as ' internal disturbance', which will give it the power to invoke Article 355 to intervene in such cases

हिन्दू संघर्ष समिति ने धन्यवाद व्यक्त किया

19 सितम्बर 2008 में, मिनी पाकिस्तान जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी स्थित बटला हाउस एनकाउन्टर में शहीद हुए इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा की वर्षी 19 सितम्बर, 2011 को कई जगह मनाई गई और उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई. हिन्दू संघर्ष समिति की ओर से जगदगुरु शंकराचार्य परम पूज्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती जी ने इस बार एक अपील वीडियो जारी की थी. इस वीडियो को  http://www.youtube.com/watch?v=JuZPFaomQHE लिंक पर देखा जा सकता है.

दिल्ली में कई स्थानों पर शहीद मोहन चंद शर्मा की याद में कार्यक्रम किये गए और उन्हें श्रद्धांजलि दी गई. अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं ने, गैर सरकारी संगठनों ने और कुछ राजनीतिक दलों ने इस मौके पर कार्यक्रम किये. हिन्दू संघर्ष समिति उन सभी का आभार व्यक्त करती है. हम निवेदन करते हैं कि शहीद मोहनचंद शर्मा को प्रतिवर्ष इसी तरह याद करते रहें. उन्होंने भारत को नष्ट करने के सपने देखने वाले जिहादी आतंकवादियों से लोहा लेते हुए अपने प्राण न्योछावर किये हैं. वे भारत के नायक (हीरो) हैं. हमें ऐसे सच्चे सपूतों को जरुर याद करना चाहिए.

Tuesday, 20 September 2011

अरुण विक्रमादित्य ने बीजेपी को चेताया

हिन्दू संघर्ष समिति के अध्यक्ष श्री अरुण विक्रमादित्य ने बीजेपी को चेताया, उलेमा काउन्सिल में बीजेपी के अल्पसंख्यक मोर्चा के प्रभारी डॉ जे के जैन के भाषण की निंदा की,


श्री अरुण विक्रमादित्य का बयान --- अभी हाल की कुछ घटनाओं से भारतीय जनता पार्टी का चाल, चरित्र और चेहरा कुछ और बदरंग होता नजर आया है. भारतीय जनता पार्टी के अल्पसंख्यक मोर्चा के प्रभारी डॉ जे के जैन का उलेमा काउन्सिल में 19 सितम्बर को दिया गया भाषण आतंकवादियों को उत्पीडन का जामा पहनाकर सहानुभूति और दया का पात्र बताने की कोशिश है जो सही मायनों में भयंकर पाप एवं स्पष्ट देशद्रोह है. उत्पीडन के शिकार आतंकवादी नहीं बल्कि बम विस्फोटों, आतंकवादी हमलों में मारे गए निर्दोष नागरिक एवं सुरक्षा कर्मी हैं. भारतीय जनता पार्टी की यह नीति भय, भूख और भ्रष्टाचार से लड़ने वाली, जिसकी वो दावा करते हैं, होने की बजाय, अन्याय और इस्लामिक आतंकवाद का तुष्टिकरण है. इस प्रकार की तथाकथित ओछी धर्मनिरपेक्षता या सस्ती राजनितिक फसल काटने की इच्छा दुर्बुद्धि के सिवाय कुछ और नहीं है. इससे भाजपा के राष्ट्रवादी चरित्र का पतन होता प्रतीत हो रहा है.

मेरी भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष नेतृत्व से प्रार्थना है कि राष्ट्रवादी संगठन के तौर पर पहचाने जाने वाली भारतीय जनता पार्टी पर ऐसा कलंक न लगने दें और उन्हें तुरंत बर्खास्त किया जाये. मैं उनसे विनती करता हूँ कि वो न्याय सभी के लिए और तुष्टिकरण किसी के लिए नहीं वाली नीति की स्पष्ट व्याख्या करें. जे के जैन जैसे नेता भाजपा के राष्ट्रवादी चरित्र का बलात्कार करने की कोशिश कर रहे हैं जो बहुत ज्यादा निंदनीय है. 

डॉ जे के जैन के भाषण के लिए विजिट करें- http://twocircles.net/2011sep19/bjp_extends_its_support_ulema_council_wants_alliance_cleric_based_party.html

Sunday, 18 September 2011

Sahadat Diwas 19 September - Mohan Chand Sharma

शहीद मोहन चंद शर्मा का बलिदान दिवस-19 सितम्बर 2011

19 सितम्बर को हम सबको शहीद मोहन चंद शर्मा का बलिदान दिवस मनाना चाहिए क्योंकि सरकार द्वारा प्रायोजित शहीदों को तो हम याद रखते हैं लेकिन वास्तविक शहीदों को हम भूल जाते हैं. हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट में हुए बोम्ब ब्लास्ट के बाद जामिया में जिहादी आतकंवादियों से सहानुभूति रखने वालों में ख़ुशी का माहौल है. ऐसे में 19 तारीख को उनका बलिदान दिवस मानना और भी प्रासंगिक हो जाता है.
हिन्दू संघर्ष समिति इस दिवस को मानाने की सभी से अपील करती है. अधिक से अधिक लोग 19 सितम्बर को सुबह 11 बजे जामिया में पहुंचकर शहीद मोहन चंद शर्मा को श्रद्धांजलि अर्पित करें.

जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती जी ने भी बलिदान दिवस मनाने की अपील की है

Thursday, 4 August 2011

Bad in intent and content

Seshadri Chari

A legislation that seeks to divide rather than build upon the collective expression for peace and communal harmony should be rejected — and Sonia Gandhi's toadies on the NAC investigated for their real agenda

Can a Government turn into a scheming enterprise and foist upon the majority community of the country an enactment that charges them as inherently communally rowdy and out to wreak havoc on a major minority in their own land? If your answer is no, think again. The Prevention of Communal and Targeted Violence (Access to Justice and Reparations) Bill, 2011 smacks of a sinister agenda to divide the society on the basis of religion and draw political mileage. The Bill also unashamedly violates the basic tenets of the Constitution of India. More importantly, the Bill, when it becomes an Act, would end up creating “more equal” citizens, rubbishing the Constitutional guarantee of “equality of justice”.

When a Bill is prepared one can assume that the endeavour is bad in content but the intent of the government preparing it cannot generally be suspected. But this is one Bill which is unreservedly bad in intent as well as content.

The Lokpal draft Bill prepared by the members of the civil society led by Gandhian and anti-corruption crusader Anna Hazare was ridiculed by one Congress worthy as an attempt to destabilise the government by some “unelected and unelectable” persons. So, how did the UPA government institutionalise a body of unelected and probably “unelectable” persons under the banner of the National Advisory Council (NAC), with the specific mandate to “provide policy and legislative inputs to Government?” There is no provision for NAC in the Constitution, and certainly not for a body with a Chairperson who wields greater power than the Prime Minister of the country. The NAC is nothing but a blatant and deplorable deviation from the Constitutional scheme of governance and legislation.

The perpetrators of this obnoxious Bill have not concealed their hatred for anything Hindu or what they conveniently would term as ‘saffron’. Needless their target is the Narendra Modi government of Gujarat followed by all other non-Congress and BJP governments.

The very first offensive definition in the Bill is of the expression ‘group’. A ‘group’, the Bill says, is a religious or linguistic minority and in a given state may include the Scheduled Castes and Scheduled Tribes. Without any deception, Clause 3(e) makes it abundantly clear that the bill seeks to protect only “religious or linguistic minorities.” The insertion of the word “linguistic” appears to be a diversion. There were not many instances of serious strife between one linguistic group and another in the past many years, except the political gimmicks in Mumbai against north Indians. But now if the Bill becomes a law, even if a presumably errant Shiv Sainik utters a word against any north Indian, the Shiv Sena supremo Bal Thackeray could end up as Azmal Kasab’s neighbor in Mumbai’s Arthur Road jail.

The next part of the sentence, “in any State in the Union of India” does not mean anything, because, for any Central law to be applicable to Jammu & Kashmir, concurrence of the state legislature is necessary. Therefore Clause I (2) is simply superfluous. If the naïve believe that it is possible to extend the law to Jammu & Kashmir to protect the Kashmiri Pundits, perish the thought. The tricky Clause 3 (m) contradicts any such possibility: “In the event this Act is extended to the State of Jammu and Kashmir” (not ‘when’, but, in the event!) “…any reference in this Act to a Law, which is not in force in the State of Jammu and Kashmir, shall, in relation to the State, be construed as a reference to a corresponding law, if any, in force in that State.”

In plain English, shorn of legalese, the Law will never be applied in Jammu & Kashmir. This is not surprising in view of the derision that an exalted member of the NAC has for the State’s minorities, the Kashmiri Pandits. She wrote in an article in Deccan Chronicle some time ago that the issue of Kashmiri Pandits has been ‘highly romanticised’ (sic).

The Bill assumes that no member of the majority community can ever be a victim. It is a unilateral declaration by the “wise men (and women)” of the NAC that Hindus in India are a bunch of serial offenders determined to deviate from thousands of years of tolerance, secularism and respect for other’s faith. The discrimination of offences is so evident in the Bill that no member of the minority community is to be punished under this Act for having committed the (same) offence against the majority community.

If the objective of the Bill is to protect the religious minorities, from whom does it seek to protect them? The definition of ‘association’ in Clause 3 (b) is scary and is enough to remind one of the midnight knock of the infamous Emergency. An “accused” need not be an enlisted member of any association ‘whether or not registered or incorporated under any law’. For, if the ‘association’ need not be legally constituted to be accused of an offence, where is the question of ‘enlisted’ membership? If you are ipso facto deemed to be a member of an ‘association’, it is enough for the act to take cognizance. No prize for guessing the target here. The entire top brass of the RSS and VHP can be sent packing to Tihar Jail on the basis of one complaint by a non-descript individual Even the street-corner Ganesh Mitra Madal in Chennai or Mumbai, which erects a huge shamiana every year, can be hauled up for “hurting the sentiments of the minority”.

Clause 15 expands the principle of vicarious liability. An offence is deemed to be committed by a senior person or office bearer of an association and he fails to exercise control over subordinates under his control or supervision. He is vicariously liable for an offence which is committed by some other person. If one is still in doubt about th intensions of the Bill in this regard one has to read the lengthy provisions of Clause 15 which speaks about ‘non state actors’ clearly intended to target Hindu organisations like the Bajrang Dal, RSS, and the VHP. Clause 16 renders orders of superiors as no defence for an alleged offence committed under this section.

The bill creates a whole set of new offences in Chapter II. Clause 6 clarifies that the offences under this bill are in addition to the offences under the SC & ST (Prevention of Atrocities) Act, 1989. Can a person be punished twice for the same offence?Probably the most vicious attack on the Hindu community and the parties and groups opposed to the Congress comes almost at the far end of the lengthy Bill in Clause 129 (Non-applicability of limitation). According to the clause the statute of limitations shall not apply to offences cognisable under the Act. The implications of this clause are far-reaching. For instance, cases being investigated by the SIT and other Commissions in Gujarat may fail to convict the accused. With total disregards to the existing laws, any one of the ‘victim’ can at anytime reopen the cases against the ‘culprits’ and drag the case on till “death do us apart”. Even those who are outside the ambit of the present cases, and you know who, can be dragged under this Bill through a revision of the cases in a superior court — and to be tried under the new act.

It is important to note that ‘offences’ under the Act are non-bailable. All that the Congress has to do is to wait for the Bill to be passed and then, lo and presto, Modi is banished from politics.

Wednesday, 3 August 2011

NAC-drafted Bill to kill State Govts

Swapan Dasgupta

The next time a partisan Government at the Centre decides to facilitate the dismissal of an elected State Government with majority support in the Assembly, it will not have to appoint a less ham-handed version of Karnataka Governor HR Bhardwaj. The former Law Minister who was sent to Bengaluru on a mission of subversion failed because both the political culture and Supreme Court judgments have made it difficult (but not impossible) for the Centre to impose President’s Rule on flights of whimsy. Gone are the days when Governors such as Ram Lal, BD Tapase and Romesh Bhandari could subvert the Constitution’s federal principles with impunity.

No, the next time an inconvenient BS Yeddyurappa or a Narendra Modi has to be destabilised and eventually dismissed, the role of the Governor will become secondary. The principal part may well be played by an emerging body of professionals who will have the power to hold any State to ransom. Like the wedding organiser and party organiser who have made life incredibly easy for people with sufficient money to burn, a breed of riot organisers will be very much in demand in the coming years. That is if the draft of the Communal Violence Bill prepared by the Sonia Gandhi-led National Advisory Council is passed by Parliament.

India has always been indulgent to bad ideas. The Nehru-Gandhi family in particular has taken exceptional care to nurture quackery and cretinism as long as they were packaged in the garb of ‘progressive’ politics. Just as the Planning Commission was the nursery for bad economics for four decades, the NAC is fast becoming the instrument for Sonia Gandhi’s misapplication of mind. Its contribution to the derailing of India’s global competitive potential will be assessed (and, hopefully, even quantified) by economic historians in the future. However, mercifully, the NAC had so far desisted from imposing its grubby paw prints on the basic features of the Constitution — although the centralist ‘one size fits all’ philosophy was a recurring feature of all its proposals. The draft Communal Violence Bill marks a departure.

The implications of the Bill are grave. To destabilise a difficult State Government, a cynical dispensation at the Centre will merely have to engage the services of a riot organiser. The riot organiser will simply have to either orchestrate tensions in a chosen locality — not a very difficult project — and trigger a little riot against either a minority community or local Dalits and tribals. No administration, however well-meaning and committed to social harmony can prevent a determined bid to foster disharmony. Under the proposed law, that local disturbance will become the pretext for the Centre to use Article 355 to intervene in the State.

Next, the seven-member National Authority for Communal Harmony, Justice and Reparation made up, presumably, of ‘non-partisan’ grandees such as Harsh Mander and Teesta Setalvad, will get into the act. Blessed with statutory sanction, this committee of the good and virtuous will stricture the local administration and the State Government for its alleged lapses and suspected complicity in the riots and make a case for the breakdown of the Constitutional machinery. The committee’s report, in turn, will become the occasion to file FIRs against ‘difficult’ State leaders and an obliging Bhardwaj-like Governor will recommend the imposition of Article 356 on the State.

Yes, a few innocent citizens would have died or had their property destroyed in the exercise. But at least they would have died so that the supercops of secularism could rule.

The Communal Violence Bill proposed by the NAC is not merely flawed, it is positively dangerous. In a country where laws sometimes exist to be subverted, the proposed legislation will be a direct incitement to made-to-order rioting and political destabilisation. The presence of a legally-sanctioned committee of the wonderfully virtuous overseeing the State administration is calculated to undermine any elected Government and make administrators accountable to two masters. Governance would be made dysfunctional and the primary focus of every official would be to keep the Centre happy. Even an issue as localised (but no less regrettable) as the violence in Greater Noida over the quantum of compensation for land acquisition would become the pretext for the Centre to first intervene directly and subsequently dismiss the Mayawati Government.

There is a strong case for ensuring that the State Government (which has ultimately responsibility for law and order and the preservation of peace) carries out its obligations diligently and without fear or favour. The best way to ensure this is all-round vigilance. Many district-level committees made up of local notables can be constituted to be an informal watchdog body and even assist the local administration. But political power ultimately vests with an elected Government and not with do-gooders nominated by the Government because they have the right aesthetic and NGO credentials. Sonia Gandhi has chosen to exercise power without making herself accountable. Now she seems determined to foist this model of colonial paternalism on the rest of the country.

India is a federal country and the more federal it becomes the better. The attempt to regress to back-door centralism has to be resisted. The issue is not riots versus secularism; the choice is between federalism and centralism, between a Delhi Sultanate and local democracy. Parliament should choose wisely.

Monday, 25 July 2011

हिन्दुओं पर सरकारी आक्रमण-सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक

श्री विजय कुमार शर्मा
सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा प्रस्तावित सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम विधेयक (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) 2011 विधेयक को केन्द्रीय सरकार ने स्वीकार कर लिया है। इस विधेयक का उद्देश्य बताया गया है कि यह देश में साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने में सहायक सिद्ध होगा। इसको अध्ययन करने पर ध्यान में आता है कि यदि दुर्भाग्य से यह पारित हो जाता है तो इसके परिणाम केवल विपरीत ही नहीं होंगे अपितु देश में साम्प्रदायिक विद्वेष की खाई इतनी चौडी हो जायेगी जिसको पाटना असम्भव हो जायेगा।यहां तक कि एक प्रमुख सैक्युलरिस्ट पत्रकार,शेखर गुप्रा ने भी स्वीकार किया है कि,”इस बिल से समाज का साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण होगा। इसका लक्ष्य अल्पसंख्यकों के वोट बैंक को मजबूत करने के अलावा हिन्दू संगठनों और हिंदू नेताओं का दमन करना है।
जिस प्रकार सरकार की रुचि भ्रष्टाचार को समाप्त करने की जगह भ्रष्टाचार को संरक्षण देकर उसके विरुद्ध आवाज उठाने वालों के दमन में है,उसी प्रकार यह सरकार साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने की जगह हिंसा करने वालों को संरक्षण और उनके विरुद्ध आवाज उठाने वाले हिंदू संगठनों और उनके नेताओं को इसके माध्यम से कुचलना चाहती है। इस अधिनियम के माध्यम से केन्द्र राज्य सरकारों के कार्यों में हस्तक्षेप कर देश के संघीय ढांचे को ध्वस्त कर देगा। यह भारतीय संविधान की मूल भावना को तहस-नहस करता हुआ भी दिखाई दे रहा है। यह अधिनियम एक नई तानाशाही को तो जन्म देगा ही, यह हिन्दू समाज की भावनाओं और उनको वाणी देने वाले हिन्दू संगठनों को भी कुचल देगा।

जिस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अनुशंसा(आदेश) पर इस विधेयक को लाया जा रहा है, वह एक समानांतर सरकार की तरह काम कर रही है। यह न तो एक चुनी हुई संस्था है और न ही इसके सभी सदस्य जनता के द्वारा चुने गये प्रतिनिधी हैं। सरकार जो तर्क “सिविल सोसाईटी या अन्य जन संगठनों के विरुद्ध प्रयोग करती है, वह स्वयं उस के विपरीत आचरण कर रही है।

राष्ट्रीय सलाहकार परिषद एक असंवैधानिक महाशक्ति है जो बिना किसी जवाबदेही के सलाह की आड़ में आदेश देती है। केन्द्र सरकार दासत्व भाव से उनके आदेशों को लागू करने के लिये हमेशा ही तत्पर रहती है। जिस ड्राफ्ट कमेटी ने इस विधेयक को बनाया है, उसके सदस्यों के चरित्र का विचार करते ही उनकी नीयत के बारे में किसी संदेह की गुंजाइश नहीं रहती है। इस समिती में 9 सद्स्य और उनके 4 सलाहकार हैं । इन सब में समानता के यही बिंदू है कि ये सभी हिंदू संगठनों के घोर विरोधी हैं, हमेशा गुजरात के हिन्दू समाज को कटघरे में खडा करने के लिये तत्पर रहते हैं और अल्पसंख्यकों के हितों का एकमात्र संरक्षक दिखने के लिये देश को भी बदनाम करने में संकोच नहीं करते।

हर्ष मंडेर रामजन्मभूमि आन्दोलन और हिन्दू संगठनों के घोर विरोधी हैं। अनु आगा जो कि एक सफल व्यवसायिक महिला हैं, गुजरात में मुस्लिम समाज को उकसाने के कारण ही एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में पहचानी जाती । तीस्ता सीतलवाड और फराह नकवी की गुजरात में भूमिका सर्वविदित है। उन्होंने न केवल झूठे गवाह तैयार किये हैं अपितु देश विरोधियों से अकूत धनराशी प्राप्त कर झूठे मुकदमे दायर किये हैं और जांच प्रक्रिया को प्रभावित करने का संविधान विरोधी दुष्कृत्य किया है। आज इनके षडयंत्रों का पर्दाफाश हो चुका है, ये स्वयं न्याय के कटघरे में कभी भी खडे हो सकते हैं। ये लोग अपनी खीज मिटाने के लिये किसी भी सीमा तक जा सकते हैं।

जो काम वे न्यायपालिका के माध्यम से नहीं कर सके ,ऐसा लगता है वे इस विधेयक के माध्यम से करना चाहते हैं। एक प्रकार से इन्होनें अपने कुत्सित इरादों को पूरा करने के लिये चोर दरवाजे का प्रयोग किया है। इनके घोषित-अघोषित सलाहकारों के नाम इनका भंडाफोड करने के लिये पर्याप्त हैं।” मुस्लिम इन्डिया” चलाने वाले सैय्यद शहाबुद्दीन, धर्मान्तरण करने के लिये विदेशों में भारत को बदनाम करने वाले जोन दयाल, हिन्दू देवी-देवताओं का खुला अपमान करने वाली शबनम हाशमी और नियाज फारुखी जिस समिती के सलाहकार हों , वह कैसा विधेयक बना सकते हैं इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।

भारत के बडबोले मंत्री, कपिल सिब्बल द्वारा इस अधिनियम को सार्वजनिक करते हुए गुजरात के दंगों और उनमें सरकार की कथित भूमिका का उल्लेख करना सरकार की नीयत को स्पष्ट करता है। ऐसा लगता है कि सारी सैक्युलर ब्रिगेड मिलकर जो काम नहीं कर सकी, उसे सोनिया इस विधेयक के माध्यम से पूरा करना चाहती हैं। गुजरात के संदर्भ में सभी कसरतें व्यर्थ जा रही हैं। आरोप लगाने वाले स्वयं आरोपित बनते जा रहे हैं। कानून के शिकंजे में फंसने की दहशत से वे मरे जा रहे हैं। इस अधिनियम का प्रारूप देखने से ऐसा लगता है मानो उन्हीं चोट खाये इन तथाकथित मानवाधिकारवादी ने इसको बनाने के लिये अपनी कलम चलाई है।

इस विधेयक को सार्वजनिक करने का समय बहुत महत्वपूर्ण है। कुछ दिन पूर्व ही अमेरिका के ईसाईयत के प्रचार के लिये बदनाम “अंतर्राष्ट्रीय धर्म स्वातंत्र्य आयोग” ने भारत को अपनी निगरानी सूची में रखा है। उन्होंनें भी गुजरात और ओडीसा के उदाहरण दिये हैं।मानावधिकार का दलाल अमेरिका मानवाधिकारों के सम्बंध में अमेरिका का दोगलापन जगजाहिर है। इस आयोग को चिंता है ओडिसा और गुजरात की घटनाओं की, परन्तु उसको कश्मीर के हिन्दुओं या मणिपुर और त्रिपुरा में ईसाई संगठनों द्वारा हिन्दुओं के नरसंहारों की चिंता क्यों नहीं होती? इससे भी बडे दुर्भाग्य का विषय यह है कि भारत के किसी सैक्युलर नेता नें अमेरिका को धमकाकर यह नहीं कहा कि उसको भारत के आन्तरिक मामलों में दखल देने का अधिकार नहीं है। भारत के मुस्लिम और ईसाई संगठनों नें इसका स्वागत किया है। इससे उनकी भारतबाह्य निष्ठा स्पष्ट होती है। इस बदनाम आयोग की रिपोर्ट के तुरन्त बाद इस विधेयक को सार्वजनिक करना, ऐसा लगता मानों ये दोनों एक ही जंजीर की दो कडिया हैं।

राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के गलत इरादों का पता इसी बात से लगता है कि इन्होंनें साम्प्रदायिक दंगों के कारणों का विश्लेषण भी नहीं किया। ड्राफ्ट समिति की सदस्य अनु आगा ने अप्रैल ,2002 में कहा था, यदि अल्पसंख्यकों को पहले से ही तुष्टीकरण और अनावश्यक छूटें दी गई हैं तो उस पर पुनर्विचार करना चाहिये। यदि ये सब बातें बहुसंख्यकों के खिलाफ गई हैं तो उनको वापस लेने का साहस होना चाहिये। इस विषय पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिये।’(इन्डियन एक्स., 8 अप्रैल,2002) इन नौ वर्षों में अनु आगा ने इस विषय में कुछ नहीं किया। शायद उन्हें मालूम चल गया था कि यदि सत्य सामने आ गया तो ऐसा अधिनियम बनाना पडेगा जो प्रस्तावित अधिनियम के बिल्कुल विपरीत होगा।

यह अधिनियम विदेशी शक्तियों के इशारे पर ही लाया गया है। ऐसा लगता है कि एक अन्तर्राष्ट्रीय षडयंत्र के आधार पर हिन्दू समाज, हिन्दू संगठनों और हिन्दू नेताओं को शिकंजे में कसने का प्रयास किया जा रहा है।

इस विधेयक के कुछ खतरनाक प्रावधान निम्नलिखित हैं -

1. यह विधेयक साम्प्रदायिक हिंसा के अपराधियों को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के आधार पर बांटने का अपराध करता है। किसी भी सभ्य समाज या सभी राष्ट्र में यह वर्गीकरण स्वीकार्य नहीं होता। अभी तक यही लोग कहते थे कि अपराधी का कोई धर्म नहीं होता। अब इस विधेयक में क्यों साम्प्रदायिक हिंसा के अल्पसंख्यक अपराधियों को दंड से मुक्त रखा गया है? प्रस्तावित विधेयक का अनुच्छेद 8 अल्प्संख्यकों के विरुद्ध घृणा का प्रचार अपराध मानता है। परन्तु हिन्दुओं के विरुद्ध इनके नेता और संगठन खुले आम दुष्प्रचार करते हैं। इस विधेयक में उनको अपराधी नहीं माना गया है। इनका मानना है कि अल्पसंख्यक समाज का कोई भी व्यक्ति साम्प्रदायिक तनाव या हिंसा के लिये दोषी नहीं है। वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है। भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में इनके धार्मिक नेताओं के भाषण व लेखन अन्य धर्मावलम्बियों के विरुद्ध विषवमन करते हैं। भारत में भी कई न्यायिक निर्णयों और आयोगों की रिपोर्टों में इनके भाषणों और कृत्यों को ही साम्प्रदायिक तनाव के मूल में बताया गया है। ओडीसा और गुजरात की जिन घटनाओं का ये बार-बार प्रलाप करते हैं, उनके मूल में भी आयोगों और न्यायालयों नें अल्पसंख्यकों की हिंसा को पाया है। मूल अपराध को छोडकर प्रतिक्रिया वाले को ही दंडित करना न केवल देश के कानून के विपरीत है अपितु किसी भी सभ्य समाज की मान्यताओं के खिलाफ है।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में कथित अल्पसंख्यक समाज द्वारा हिंदू समाज पर 1,50,000 से अधिक हमले हुए हैं तथा हिन्दुओं के मंदिरों पर लगभग ५०० बार हमले हुए हैं। २०१० में बंगाल के देगंगा में हिंदुओं पर किये गये अत्याचारों को देखकर यह नहीं लगता कि यह भारत का कोई भाग है। बरेली और अलीगढ में हिन्दू समाज पर हुऍ हमले ज्यादा पुराने नहीं हुए हैं। एक विदेशी पत्रकार द्वारा विदेश में ही पैगम्बर साहब के कार्टून बनाने पर भारत में कई स्थानों पर हिन्दुओं पर हमले किसी से छिपे नहीं हैं। अपराधी को छोडना और पीडित को ही जिम्मेदार मानना क्या किसी भी प्रकार से उचित माना जा सकता है? एक अन्य सैक्युलर नेता,सैम राजप्पा ने लिखा है, आज जबकि देश साम्प्रदायिक हिंसा से मुक्ति चाहता है, यह अधिनियम मानकर चलता है कि साम्प्रदायिक दंगे बहुसंख्यक के द्वारा होते हैं और उनको ही सजा मिलनी चाहिये। यह बहुत भेदभावपूर्ण है। (दी स्टेट्समैन,६जून,२०११)

2. अनुच्छेद 7 के अनुसार यदि एक मुस्लिम महिला के साथ दुर्व्यवहार होता है तो वह अपराध है, परन्तु हिन्दू महिला के साथ किया गया बलात्कार अपराध नहीं है जबकि अधिकांश दंगों में हिन्दू महिला की इज्जत ही निशाने पर रहती है।

3. जिस समुदाय की रक्षा के बहाने से इस शैतानी विधेयक को लाया गया है, उसको इस विधेयक में” समूह” का नाम दिया है। इस समूह में कथित अल्पसंख्यकों के अतिरिक्त अनुसूचित जातियों और जनजातियों को भी शामिल किया गया है। क्या इन वर्गों में परस्पर संघर्ष नहीं होता? शिया-सुन्नी के परस्पर खूनी संघर्ष जगजाहिर हैं। इसमें किसकी जिम्मेदारी तय करेंगे? अनुसूचित जातियों के कई उपवर्गों में कई बार संघर्ष होते हैं,हालांकि इन संघर्षों के लिये अधिकांशतः ये सैक्युलर बिरादरी के लोग ही जिम्मेदार होते हैं। इन सबका यह मानना है कि उनकी समस्याओं का समाधान हिंदू समाज का अविभाज्य अंग बने रहने में ही हो सकता है। यह देश की अखण्डता और हिन्दू समाज को भी विभक्त करने का षडयंत्र है। इन दंगों की रोकथाम क्या इस अधिनियम से हो पायेगी? इन संघर्षों को रोकने के लिये जिस सदभाव की आवश्यक्ता होती है, इस कानून के बाद तो उसकी धज्जियां ही उधडने वाली हैं।

4. इस विधेयक में बहुसंख्यक हिन्दू समाज को कट्घरे में खडा किया गया है। सोनिया को ध्यान रखना चाहिये कि हिन्दू समाज की सहिष्णुता की इन्होनें कई बार तारीफ की है। कांग्रेस के एक अधिवेशन में इन्होनें कहा था कि भारत में हिन्दू समाज के कारण ही सैक्युलरिज्म जिंदा है और जब तक हिन्दू रहेगा भारत सैक्युलर रहेगा। विश्व में जिसको भी प्रताडित किया गया, उसको हिंदू नें शरण दी है। जब यहूदियों, पारसियों और सीरियन ईसाइयों को अपनी ही जन्मभूमि में प्रताडित किया गया था तब हिन्दू ने ही इनको शरण दी थी। अब उसी हिन्दू को निशाना बनाने की जगह साम्प्रदायिक तनावों के मूल को समझना चाहिये। सोनिया को वोट बैंक की चिंता छोडकर देशहित का विचार करना चाहिये। यदि ये सहिष्णु हिन्दू समाज को एक नरभक्षी दानव के रूप में दिखायेंगे तो साम्प्रदायिक वैमनस्य की खाई और चौडी हो जायेगी जिसे कोई नहीं पाट सकेगा। सलाहकार परिषद के ही एक सदस्य, एन.सी. सक्सेना ने कहा था, यदि अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति द्वारा बहुसंख्यक समाज के किसी व्यक्ति पर अत्याचार होता है तो यह विषय भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आयेगा, प्रस्तावित अधिनियम में नहीं। (दी पायनीयर,23 जून,2011) इस कानून का संरक्षण केवल बहुसंख्यक समाज के लिये नहीं , अल्पसंख्यक समाज के लिये भी है। फिर इस अधिनियम की आवश्यक्ता ही क्या है? क्या इससे उनके इरादों का पर्दाफाश नहीं हो जाता?

5.इस विधेयक में साम्प्रदायिक हिंसा की परिभाषा दी है, वह कृत्य जो भारत के सैक्युलर ताने बाने को तोडेगा। भारत में सैक्युलरिज्म की परिभाषा अलग-अलग है। भारतीय संविधान में या इस विधेयक में कहीं भी इसे परिभाषित नहीं किया गया। क्या अफजल गुरू को फांसी की सजा से बचाना,आजमगढ जाकर आतंकियों के हौंसले बढाना, बटला हाउस में पुलिस वालों के बलिदान को अपमानित कर आतंकियों की हिम्मत बढाना,मुम्बई  हमले में बलिदान हुए लोगों के बलिदान पर प्रश्नचिंह लगाना, मदरसों में आतंकवाद के प्रशिक्षण को बढावा देना, बंग्लादेशी घुसपैठियों को बढावा देना सोनिया की निगाहों में सैक्युलरिज्म है और इनके विरुद्ध आवाज उठाना सैक्युलर ताने-बाने को तोडना? ये लोग सैक्युलरिज्म की मनमानी परिभाषा देकर क्या देशभक्तों को प्रताडित करना चाहते हैं?

6.विधेयक के उपबंध 74 के अनुसार यदि किसी व्यक्ति के ऊपर घृणा सम्बन्धी प्रचार या साम्प्रदायिक हिंसा का आरोप है तो उसे तब तक दोषी माना जायेगा जब तक कि वह निर्दोष सिद्ध न हो जाये। यह उपबंध संविधान की मूल भावना के विपरीत है। भारत का संविधान कहता है कि जब तक अपराध सिद्ध न हो जाये तब तक आरोपी निर्दोष माना जाये। यदि यह विधेयक पास हो जाता है तो किसी को भी जेल में भेजने के लिये उस पर केवल आरोप लगाना पर्याप्त रहेगा। उसके लिये अपने आप को निर्दोष सिद्ध करना कठिन ही नहीं असम्भव हो जायेगा। इस विधेयक में यह भी प्रावधान है कि अगर किसी हिन्दू के किसी व्यवहार से उसे मानसिक कष्ट हुआ है तो वह भी प्रताडना की श्रेणी में आयेगा। इसका अर्थ है कि अब किसी अल्पसंख्यक नेता के कुकृत्य या देश विरोधी काम के बारे में नहीं कहा जा सकता।

7.यदि किसी राज्य के कर्मचारी के विरुद्ध इस प्रकार का आरोप है तो उसके लिये उस राज्य का मुख्यमंत्री भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है क्योंकि वह उसे नहीं रोक सका है। इसका अर्थ है कि अब झूठी गवाही के आधार पर किसी भी विरोधी पक्ष के मुख्यमंत्री को फंसाना अब ज्यादा आसान हो जायेगा। जो मुख्यमंत्री अब तक इनके जाल में नहीं फंस पा रहे थे, अब उनके लिये जाल बिछाना ज्यादा आसान हो जायेगा।

8. यदि किसी संगठन का कोई कार्यकर्ता आरोपित है तो उस संगठन का मुखिया भी जिम्मेदार होगा क्योंकि वह भी इस अपराध में शामिल माना जायेगा। अब ये लोग किसी भी हिंदू संगठन व उनके नेताओं को आसानी से जकड सकेंगे। कसर अब भी नहीं छोड रहे परन्तु अब वे अधिक मजबूती से इन पर रोक लगा कर मनमानी कर सकेंगे।

9. यदि दुर्भाग्य से यह विधेयक पास हो जाता है तो राज्य सरकार के अधिकारों को केन्द्र सरकार आसानी के साथ हडप सकती है। कानून व्यवस्था राज्य सरकार का विषय होती है। केन्द्र सरकार ऐसे विषयों पर सलाह दे सकती है या “एड्वाइजरी” जारी कर सकती है। इससे भारत का संघीय ढांचा सुरक्षित रहता है। परन्तु अब संगठित साम्प्रदायिक और किसी सम्प्रदाय को लक्ष्य बनाकर की जाने वाली हिंसा राज्य के भीतर आंतरिक उपद्रव के रूप में देखी जायेगी। पहले केन्द्र सरकार की मंशा अनुच्छेद ३५५ का उपयोग कर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की थी। परन्तु अब इस कदम को वापस लेकर वे राजनीतिक दलों के विरोध की धार को कुंद करना चाहते हैं। परन्तु इनके राज्य सरकारों को कुचलने के इरादों में कोई कमी नहीं आयी है।

10. प्रस्तावित अधिनियम में निगरानी व निर्णय लेने के लिये जिस प्राधिकरण का प्रावधान है उसमें ७ सदस्य होंगे। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष समेत इन 7 में से 4 सदस्य अल्पसंख्यक वर्ग के होंगे। क्या इससे परस्पर अविश्वास नहीं बढेगा? इसका मतलब यह स्पष्ट है कि हर व्यक्ति ,चाहे किसी भी पद पर हो, केवल अपने समुदाय की चिंता करता है। इस चिंतन का परिणाम क्या होगा इस पर देश को अवश्य विचार करना होगा। किसी न्यायिक प्राधिकरण का साम्प्तदायिक आधार पर विभाजन देश को किस ओर ले जायेगा?

11. इस प्राधिकरण को असीमित अधिकार दिये गये हैं। ये न केवल पुलिस व सशस्त्र बलों को सीधे निर्देश दे सकते हैं अपितु इनके सामने दी गई गवाही न्यायालय के सामने दी गई गवाही मानी जायेगी। इसका अर्थ है कि तीस्ता जैसी झूठे गवाह तैय्यार करने वाली अब अधिक खुल कर अपने षडयंत्रों को अन्जाम दे सकेंगी।

12. अनुच्छेद 13 सरकारी कर्मचारियों पर इस प्रकार शिकन्जा कसता है कि वे मजबूरन अल्पसंख्यकों का साथ देने के लिये मजबूर होंगे चाहे वे ही अपराधी क्यों न हों।

13.यदि यह विधेयक लागू हो जाता है तो किसी भी अल्पसंख्यक व्यक्ति के लिये किसी भी बहुसंख्यक को फंसाना बहुत आसान हो जायेगा। वह केवल पुलिस में शिकायत दर्ज करायेगा और पुलिस अधिकारी को उस हिन्दु को बिना किसी आधार के भी गिरफ्तार करना पडेगा। वह हिन्दू किसी सबूत की मांग नहीं कर सकता क्योंकि अब उसे ही अपने को निरपराध सिद्ध करना है। वह शिकायतकर्ता का नाम भी नहीं पूछ सकता। अब पुलिस अधिकारी को ही इस मामले की प्रगति की जानकारी शिकायतकर्ता को देनी है जैसे कि वह उसका अधिकारी हो। शिकायतकर्ता अगर यह कहता है कि आरोपी के किसी व्यवहार, कार्य या इशारे से वह मानसिक रूप से पीडित हुआ है तो भी आरोपी दोषी माना जायेगा। इसका अर्थ है कि अब कोई भी किसी मौलवी या किसी पादरी के द्वारा किये गये किसी दुष्प्रचार की शिकायत भी नहिं कर सकेगा न ही वह उनके किसी घृणास्पद साहित्य का विरोध कर सकेगा।

14. इस विधेयक के अनुसार अब पुलिस अधिकारी के पास असीमित अधिकार होंगे। वह जब  चाहे आरोपी हिन्दू के घर की तलाशी ले सकता है। यह अन्ग्रेजों के द्वारा लाये गये कुख्यात रोलेट एक्ट से भी खतरनाक सिद्ध हो सकता है।

15.इस विधेयक की धारा 81 में कहा गया है कि ऐसे मामलों नियुक्त विशेष न्यायाधीश किसी अभियुक्त के ट्रायल के लिये उसके समक्ष प्रस्तुत किये बिना भी उसका संज्ञान ले सकेगा और उसकी संपत्ति को भी जब्त कर सकेगा।

16.किसी अल्पसंख्यक के व्यापार में बाधा डालना भी इसमें अपराध है। यदि कोई मुसलमान किसी हिंदू की सम्पत्ति को खरीदना चाहता है और वह हिंदू मना करता है तो इसमें वह अपराध बन जायेगा।

17.अब हिन्दू को इस अधिनियम में इस कदर कस दिया जायेगा कि उसको अपने बचाव का एक ही रास्ता दिखाई देगा कि वह धर्मांतरण को मजबूर हो जायेगा। इसके कारण धर्मांतरण की गतिविधियों में जबर्दस्त तेजी आयेगी।
इस विधेयक के कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का ही विश्लेषण किया जा सका है। जैसा चित्र अभी तक सामने आया है यदि यह पास हो जाता है तो परिस्थिती और भी भयावह होगी। आपात काल में किये गये मनमानीपूर्ण निर्णय भी फीके पड जायेंगे। हिन्दू का हिन्दू के रूप में रहना और भी मुश्किल हो जायेगा। मनमोहन सिंह ने पहले ही कहा था कि देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला अधिकार है। यह विधेयक इस कथन का नया संस्करण है। इस विधेयक के विरोध में एक सशक्त आंदोलन खडा करना पडेगा तभी इस तानाशाहीपूर्ण कदम पर रोक लगाई जा सकती है।

Saturday, 23 July 2011

पंथनिरपेक्ष ढांचे पर प्रहार

ए. सूर्यप्रकाश
अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के अपने एजेंडे पर प्रतिबद्ध संप्रग सरकार एक ऐसा कानून बनाने जा रही है जो सांप्रदायिक सौहार्द को नष्ट-भ्रष्ट कर सकता है, संविधान की संघीय विशेषताओं को कमजोर कर सकता है और केंद्र सरकार को राज्यों के शासन में दखल देने के नए बहाने उपलब्ध करा सकता है। प्रस्तावित विधेयक को सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा रोकथाम बिल नाम दिया गया है और इसका जो उद्देश्य बताया जा रहा है वह सांप्रदायिक संघर्ष की घटनाओं पर अंकुश लगाना, लेकिन इसका निर्माण इस पूर्वाग्रह के साथ किया गया है कि सभी स्थितियों में धार्मिक बहुसंख्यक ही अल्पसंख्यक समुदाय पर जुल्म करता है। लिहाजा बहुसंख्यक समाज के सदस्य दोषी हैं और अल्पसंख्यक समुदाय के लोग पीडि़त। चूंकि यही धारणा इस कानून का आधार है इसलिए यह स्वाभाविक है कि प्रस्तावित कानून 35 राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों में से 28 में बहुसंख्यक हिंदुओं को सांप्रदायिक हिंसा के लिए जिम्मेदार मानता है और मुस्लिम, ईसाई तथा अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को पीडि़त के रूप में देखता है। 

इस कानून का मसौदा उस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने तैयार किया है जो छद्म सेक्युलरिस्टों, हिंदू विरोधियों और नेहरू-गांधी परिवार के समर्थकों का एक समूह है और कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी जिसकी अध्यक्ष हैं। इस परिषद को केंद्र की एक ऐसी सरकार से बराबर महत्व मिल रहा है, जिसका नेतृत्व पहली बार अल्पसंख्यक समाज के एक सदस्य द्वारा किया जा रहा है। इस प्रस्तावित कानून के प्रावधान ऐसे हैं कि यह सांप्रदायिक सौहार्द को प्रोत्साहन देना तो दूर रहा, हिंदुओं के बीच पंथनिरपेक्षता की प्रतिबद्धता को ही कमजोर कर सकता है। 

विधेयक के मसौदे के अनुसार यदि किसी समूह की सदस्यता के कारण जानबूझकर किसी व्यक्ति के खिलाफ ऐसा कृत्य किया जाए जो राष्ट्र के सेक्युलर ताने-बाने को नष्ट करने वाला हो..। सबसे बड़ी शरारत शब्द समूह की परिभाषा में की गई है। इसमें कहा गया है कि समूह का तात्पर्य भारत के किसी राज्य में धार्मिक अथवा भाषाई अल्पसंख्यक या अनुसूचित जाति अथवा जनजाति से है। इसका अर्थ है कि हिंदू, जो आज ज्यादातर राज्यों में बहुसंख्यक हैं, इस कानून के तहत समूह के दायरे में नहीं आएंगे। लिहाजा उन्हें इस कानून के तहत संरक्षण नहीं मिल सकेगा, भले ही वे मुस्लिम अथवा ईसाई सांप्रदायिकता, घृणा या हिंसा के शिकार हों। अनेक विश्लेषकों ने कहा भी है कि इसका अर्थ है कि यदि 2002 में यह कानून लागू होता तो जिन 59 हिंदुओं को गुजरात के गोधरा स्टेशन में साबरमती स्टेशन में जलाकर मार दिया गया उनकी हत्या के संदर्भ में एफआइआर दर्ज नहीं कराई जा सकती थी, क्योंकि इस कानून के तहत गुजरात में हिंदू बहुसंख्यक हैं, लेकिन मुस्लिम गोधरा बाद के दंगों के लिए इस कानून के प्रावधानों का इस्तेमाल कर सकते थे। इसका सीधा अर्थ है कि सांप्रदायिक हिंसा का शिकार होने वाले हिंदुओं को दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में देखा जाएगा और यह काफी कुछ पाकिस्तान जैसे इस्लामिक राज्य में लागू हिंदू विरोधी कानूनों की तरह है। 

प्रस्तावित कानून के मसौदे के अनुसार एक पीडि़त की व्याख्या अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य के रूप में की गई है, जिसे सांप्रदायिक हिंसा की घटना में शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक और आर्थिक क्षति पहुंची हो या उसकी संपत्ति को नुकसान हुआ हो। इसके दायरे में उसके संबंधी, कानूनी अभिभावक और उत्तराधिकारी भी शामिल हैं। इस व्याख्या के आधार पर देश के किसी हिस्से में कोई मुस्लिम या ईसाई का यदि किसी सामान्य मुद्दे पर अपने हिंदू पड़ोसी से विवाद होगा तो वह इस कानून का इस्तेमाल कर अपने पड़ोसी पर यह आरोप लगा सकता है कि उसने उसे मनोवैज्ञानिक नुकसान पहुंचाया है। यदि वह किसी कारण ऐसा न करे तो उसके संबंधी ऐसा कर सकते हैं। 

इस पूरी कवायद का जो बुनियादी मकसद नजर आता है वह है हिंदुओं को निशाना बनाना। विधेयक कहता है कि इसे पूरे भारत में लागू किया जाएगा, लेकिन जब देश के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू-कश्मीर की बात आती है तो इसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर राज्य की सहमति से इसे वहां लागू कर सकती है। 

यद्यपि इस विधेयक को इस तरह अंतिम रूप दिया गया है कि हिंदू समुदाय इसके विचित्र प्रावधानों की मार झेले, लेकिन मुस्लिम, ईसाई और सिखों को भी परेशानी झेलनी पड़ सकती है, क्योंकि बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक के निर्धारण के लिए राज्य ही इकाई है। 2001 के जनगणना आंकड़ों के मुताबिक सिख पंजाब में 59.9 प्रतिशत हैं, जबकि हिंदुओं की आबादी 36.9 प्रतिशत है। यदि यह कानून लागू हो जाता है तो बहुसंख्यक सिख समाज को हिंदुओं की शिकायत पर परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। इसी तरह ईसाई तीन राज्यों-नागालैंड (90 प्रतिशत), मिजोरम (87 प्रतिशत) और मेघालय (70.30 प्रतिशत) में बहुसंख्यक हैं। यदि इन राज्यों में हिंदुओं ने इस कानून का मनमाना इस्तेमाल शुरू कर दिया तो ईसाई समाज को मुसीबतें उठानी पड़ सकती हैं। लिहाजा मुस्लिम, ईसाई और सिख समुदाय को कांग्रेस पार्टी के इस दावे पर कदापि भरोसा नहीं करना चाहिए कि यह विधेयक पंथनिरपेक्षता को मजबूत करेगा, क्योंकि यह विधेयक सांप्रदायिक हिंसा और घृणा के सभी दोषियों को बराबरी पर नहीं देखता। 

प्रत्येक राज्य में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के निर्धारण में एक अन्य विसंगति भी है। मणिपुर में 46 प्रतिशत हिंदू हैं और अरुणाचल प्रदेश में 34.60 प्रतिशत। चूंकि इन राज्यों में किसी धार्मिक समूह के पास स्पष्ट बहुमत नहीं है लिहाजा किसे पीडि़त माना जाएगा और किसे दोषी? इसके अतिरिक्त यदि अनुसूचित जाति और जनजाति को हिंदू समुदाय से अलग कर दिया जाए तो इन राज्यों में हिंदू आबादी का प्रतिशत क्या होगा? केरल का मामला भी है, जहां 56.20 प्रतिशत हिंदू हैं। अगर इससे 22 प्रतिशत अनुसूचित जाति और जनजाति को अलग कर दिया जाए तो हिंदुओं का प्रतिशत क्या होगा? यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि जो कानून बनाया जा रहा है वह दरअसल सांप्रदायिक भी है और एक समुदाय यानी हिंदुओं को निशाना बनाने वाला भी। अगर इस विधेयक के सूत्रधार अपने मंसूबे में सफल रहे तो भारत की एकता और अखंडता खतरे में पड़ जाएगी। ऐसा विधेयक वह व्यक्ति नहीं बना सकता जो लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष भारत से प्यार करता है। हमें इसकी जांच करनी चाहिए कि विधेयक का मूल मसौदा कहां से आया है? (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

Cartoon on appeasement


Friday, 22 July 2011

एक और विभाजन की तैयारी

राजीव गुप्ता
यूनान मिस्र रोमां सब मिट गए जहां से
बाकी अभी तलक है नामों-निशा हमारा !
कुछ बात है ऐसी कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरें जहां हमारा  !!


भारत में इन पंक्तियों को भला किसने नहीं सुना होगा ? इतिहास साक्षी है कि भारत ने बहुतेरे आताताइयों के आक्रमणों को न केवल झेला है अपितु समय-समय पर उसका मुंहतोड़ जबाब भी दिया है. लेकिन ये आताताई कभी भी अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो पाए. उन्होंने हमें मजहब, ऊँच-नीच, भेदभाव, रीतिरिवाज, आदि के नाम पर आपस में खूब लड़ाने की कोशिश की परन्तु बहुत ज्यादा सफल नहीं हो पाए. क्योंकि अगर हमारे समाज ने उनका प्रतिकार किया तो उसका मूल कारण यह था कि हमारे  यहाँ मतभेद तो था परन्तु कभी मनभेद नहीं रहा. यही भारतीय संस्कृति की परिणीति रही है. समय-समय पर शासकों  की  भौगोलिक सीमायें जरूर बदलती गयी परन्तु व्यक्ति कभी अपनी मूल भावना से नहीं भटका. देश में एकता रहे इसलिए आद्य गुरु शंकराचार्य जी ने अपनी दूरदर्शिता से देश में चार धामों की स्थापना की. और तो और महात्मा गांधी ने भी देश की एकता बनाये रखने के लिए भारत-पाकिस्तान के बटवारे के समय यहाँ तक कह दिया था कि दो मुल्कों का बटवारा मेरी लाश पर होगा. तात्पर्य यह है कि भारत के मनीषियों ने, सामाजिक चिंतकों ने हर संभव कोशिश की कि देश की एकता बनी रहे.
परन्तु वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार यूपीए-2 ने भारत को खंडित करने की लगभग पूरी तैयारी कर ली है. इस मानसून  सत्र में एक ऐसा विधेयक लाने जा रही है जो सामाजिक वैमनस्य के साथ समाज में विभेद तो पैदा करेगी ही, साथ ही दिलों को भी बाँट देगी जिससे कि समुदायों के बीच दूरियां बढ़ना लगभग तय हैं. इस विधेयक का नाम है “सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक 2011“. पास होने के बाद यह अपने आप में एक ऐसा अभूतपूर्व कानून होगा जो देश के संविधान को भी ताक पर रख देगा, देश की एकता खतरे में पड़  जायेगी, और तो और यह भारत के संघीय ढांचे को ही नष्ट कर देगा और भारत में अंतर-सामुदायिक संबंधों में असंतुलन, असंतोष व रोष पैदा कर देगा. शुरू में तो विधेयक का प्रारूप देश में सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के प्रयास के तौर पर नजर आता है, किंतु इसका असली उद्देश्य इसके उलट है. राज्य सभा में नेता प्रतिपक्ष के लेख के अनुसार बिल का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है ‘समूह’ की परिभाषा. समूह से तात्पर्य पंथिक या भाषायी अल्पसंख्यकों से है, जिसमें आज की स्थितियों के अनुरूप अनुसूचित जाति व जनजाति को भी शामिल किया जा सकता है. मसौदे के तहत दूसरे अध्याय  में नए अपराधों का एक पूरा व्यौरा  दिया गया है. सांप्रदायिक हिंसा के दौरान किए गए अपराध कानून एवं व्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या होते हैं जो कि राज्यों के कार्यक्षेत्र में आता है. केंद्र को कानून एवं व्यवस्था के सवाल पर राज्य सरकार के कामकाज में दखलंदाजी का कोई अधिकार नहीं है. केंद्र सरकार का न्यायाधिकरण इसे सलाह, निर्देश देने और धारा 356 के तहत यह राय प्रकट करने तक सीमित करता है कि राज्य सरकार संविधान के अनुसार काम रही है या नहीं. यदि प्रस्तावित बिल कानून बन जाता है तो केंद्र सरकार राज्य सरकारों के अधिकारों को हड़प लेगी. इस विधेयक के द्वारा न केवल बहुसंख्यकों अर्थात हिंदुओं को आक्रामक और अपराधी वर्ग में ला खड़ा करने, बल्कि हिंदू-मुस्लिमों के बीच शत्रुता पैदा कर हर गली-कस्बे में दंगे करवाने की साजिश है.

अगर यह बाबर जैसा आतातायी और औरंगजेबी फरमान जैसा कानून की शक्ल लेता है तो किसी भी बहुसंख्यक (हिंदू) पर कोई भी अल्पसंख्यक (मुस्लिम, ईसाई या अन्य) नफरत फैलाने, हमला करने, साजिश करने अथवा नफरत फैलाने के लिए आर्थिक मदद देने या शत्रुता का भाव फैलाने के नाम पर मुकदमा दर्ज करवा सकेगा और उस बेचारे बहुसंख्यक (हिंदू) को इस कानून के तहत कभी शिकायतकर्ता अल्पसंख्यक (मुस्लिम, ईसाई या अन्य) की पहचान तक का हक नहीं होगा. इसमें शिकायतकर्ता के नाम और पते की जानकारी उस व्यक्ति को नहीं दी जाएगी जिसके खिलाफ शिकायत दर्ज की जा रही है. इसके साथ ही शिकायतकर्ता अल्पसंख्यक (मुस्लिम, ईसाई या अन्य) अपने घर बैठे शिकायत दर्ज करवा सकेगा. इसी प्रकार यौन शोषण व यौन अपराध के मामले भी केवल और केवल अल्पसंख्यक (मुस्लिम, ईसाई या अन्य) बहुसंख्यक (हिंदू) के विरुद्ध दर्ज करवा सकेगा और ये सभी मामले अनुसूचित जाति और जनजाति पर किए जाने वाले अपराधों के साथ समानांतर चलाए जाएंगे. इसका मतलब है कि संबंधित बहुसंख्यक (हिंदू) व्यक्ति को कभी यह नहीं बताया जाएगा कि उसके खिलाफ शिकायत किसने दर्ज कराई है ? इसके अलावा उसे एक ही तथाकथित अपराध के लिए दो बार दो अलग-अलग कानूनों के तहत दंडित किया जाएगा. यही नहीं, यह विधेयक पुलिस और सैनिक अफसरों के विरुद्ध उसी तरह बर्ताव करता है जिस तरह से कश्मीरी आतंकवादी और आइएसआइ उनके खिलाफ रुख अपनाते हैं. विधेयक में ‘समूह’ यानी अल्पसंख्यक (मुस्लिम, ईसाई या अन्य) के विरुद्ध किसी भी हमले या दंगे के समय यदि पुलिस, अ‌र्द्धसैनिक बल अथवा सेना तुरंत और प्रभावी ढंग से स्थिति पर नियंत्रण प्राप्त नहीं करती तो उस बल के नियंत्रणकर्ता अथवा प्रमुख के विरुद्ध आपराधिक धाराओं में मुकदमे चलाए जाएंगे. कुल मिलाकर हर स्थिति में पुलिस या अ‌र्द्धसैनिक बल के अफसरों को कठघरे में खड़ा होना होगा, क्योंकि स्थिति पर नियंत्रण जैसी परिस्थिति किसी भी ढंग से परिभाषित की जा सकती है. इस विधेयक की धाराएं किसी भी सभ्य, समान अधिकार संपन्न एवं भेदभावरहित गणतंत्र के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है.

इस विधेयक को बनाने वालों ने सांप्रदायिक हिंसा रोकने के लिए जिस सात सदस्यीय समिति के गठन की सिफारिश की है, उसमें चार सदस्य मजहबी अल्पसंख्यक होंगे. विधेयक मानकर चलता है कि यदि समिति में अल्पसंख्यकों  का बहुमत नहीं होगा तो समिति न्याय नहीं कर सकेगी. दंगो के दौरान होने वाले जान और माल के नुकसान पर मुआवजे के हक़दार सिर्फ अल्पसंख्यक ही होंगे। किसी बहुसंख्यक का भले ही दंगों में पूरा परिवार और संपत्ति नष्ट हो जाए उसे किसी तरह का मुआवजा नहीं मिलेगा. वह भीख मांग कर जीवन काट सकता है. हो सकता है सांप्रदायिक हिंसा भड़काने का दोषी सिद्ध कर उसके लिए जेल की कोठरी में व्यवस्था कर दी जाए.

एक संगठन ने इस मसले पर एक लेख निकाला है. उस लेख के अनुसार इस कानून के कुछ बिदुओं को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है यह दुर्भावना, पक्षपात एवं दुराग्रह से ग्रसित है. समाज के बहुसंख्यक वर्ग को इसके माध्यम से न केवल प्रताड़ना और अत्याचार का शिकार बनाया जा सकता है अपितु दोयम दर्जे के डरे हुए वातावरण में रहने के लिए बाध्य होना पड़ेगा. अतः समाज के लोगों को यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि वर्तमान सरकार अपने इस मसौदे से उन्हें क्या देना चाहती है ?

अधिनियम का प्रभाव क्षेत्र – इस अधिनियम की धारा 1 की उपधारा 2 के अनुसार इसका प्रभाव क्षेत्र सम्पूर्ण भारतवर्ष होगा. जम्मू-कश्मीर में राज्य की सहमति से इसे विस्तारित किया जायेगा. यह अधिनियम पारित किये जाने की तारीख से एक वर्ष के भीतर लागू होगा तथा एसे अपराध जो भारत के बाहर  किये गए है उन पर भी इस अधिनियम के उपबंधों के अंतर्गत उसी प्रकार कार्यवाही होगी जैसे वह भारत के भीतर किया गया हो. एक वर्ष के भीतर लागू किये जाने की बाध्यता को रखकर यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है कि वर्तमान सरकार और राष्ट्रीय सलाहकार समिति की वर्तमान अध्यक्षा के रहते ही यह कानून अनिवार्य रूप से लागू कर दिया जाय.

समूह – अधिनियम की धारा 3(F) के अंतर्गत दी गयी परिभाषा के अनुसार भारत संघ के किसी राज्य में कोई धार्मिक एवं भाषाई अल्पसंख्यक या भारत के संविधान के अनुच्छेद 366 खंड 24-25  के अंतर्गत अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जान जातियां समूह के अंतर्गत आती है और इन्ही समूह पर किये गए अपराध के लिए यह कानून प्रभावी होता है. एक ज्वलंत उदाहरण से इसको समझने का प्रयास करते है कि वर्तमान एक राज्य गुजरात जिसकी विकास दर भारत के सभी राज्यों से सबसे अधिक है वहां कभी दो समुदायों के बीच एक दंगा होता है, जो कि अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा शुरू किया गया था इसके साक्षी हममे से बहुत लोग होंगे. अब प्रश्न यह  उठता है कि समूह के अंतर्गत समाविष्ट किये गए धार्मिक अल्पसंख्यक क्या सांप्रदायिक या लक्षित हिंसा में सम्मिलित नहीं होते ? इस कानून की तो यही मान्यता है. इस कानून के अनुसार इस सुनियोजित कुकृत्य में संलिप्त अल्पसंख्यक समुदाय के लोग जो समूह के अंतर्गत आते है अपराधी नहीं है, परन्तु इस घटना की स्वतः स्फूर्त प्रतिक्रिया में सम्मिलित बहुसंख्यक (हिन्दू) लोग अपराधी है. दूसरा प्रश्न यह उठता है कि यदि दो समूहों के बीच ही अगर सांप्रदायिक हिंसा हो जाय तो यह कानून किस प्रकार प्रभावी  होगा ?
सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा – इस अधिनियम की धारा 3 (C) के अनुसार जानबूझ कर किसी व्यक्ति के विरुद्ध किसी समूह की सदस्यता के आधार पर ऐसा कोई कार्य या कार्यों की श्रंखला जो चाहे सहज हो या योजनाबद्ध जिसके परिणाम स्वरुप व्यक्ति या सम्पति को क्षति या हानि पहुंचती हो.

किसी समूह के विरुद्ध शत्रुता का वातावरण – अधिनियम की धारा 3 (G ) के अनुसार अधिनियम में परिभाषित समूह के किसी व्यक्ति का समूह की सदयस्ता के आधार पर व्यापर या कारोबार का बहिष्कार या जीविका अर्जन करने में उसके लिए अन्यथा कठिनाई पैदा करना, तिरस्कार पूर्ण कार्य करना चाहे वह इस अधिनियम के अधीन अपराध हो या ना हो परन्तु जिसका प्रयोजन एवं प्रभाव भयपूर्ण शत्रुता या आपराधिक वातावरण उत्पन्न करना हो. यह ऐसे विषय है जिनको निश्चित कर सकना अत्यंत कठिन है. कोई व्यक्ति किस बात से अपने आपको शर्मिंदा अनुभव करेगा या उसे कौन सा कार्य भयपूर्ण लग सकता है यह निर्धारित कर पाना अत्यंत कठिन है. समूह के अतिरिक्त यदि किसी बहुसंख्यक को धर्म के नाम पर अपमानित किया जाता है या उसे व्यापार में अवरोध उत्पन्न किया जाता है तो समूह का व्यक्ति अपराधी नहीं मना जायेगा.

पीड़ित – इस अधिनियम के अनुसार पीड़ित वही व्यक्ति है जो किसी समूह का सदस्य है. समूह के बाहर किसी बहुसंख्यक की महिला से अगर दुराचार किया जाता है या अपमानित किया जाता है या जान-माल की हानि या क्षति पहुचाई जाती है तो भी बहुसंख्यक पुरुष या महिला पीड़ित नहीं माने जायेगे. परन्तु धारा 3 (J) के अनुसार अपराध के फलस्वरूप किसी समूह का कोई व्यक्ति शारीरिक, मानसिक मनोवैज्ञानिक या आर्थिक हानि उठाता है तो न केवल वह अपितु उसके रिश्ते-नातेदार, विधिक संरक्षक और विधिक वारिस भी पीड़ित माने जायेगे. मानसिक एवं मनोवैज्ञानिक हानि को मापने पा पैमाना क्या होगा यह स्पष्ट नहीं किया गया.


घृणा या दुष्प्रचार – अधिनियम की धारा 8 के अनुसार शब्दों द्वारा या बोले गए या लिखे गए या चित्रण किये गए किसी दृश्य को प्रकाशित, संप्रेषित या प्रचारित करना, जिससे किसी समूह या समूह के व्यक्तियों के विरुद्ध समानताय या विशिष्टतया हिंसा का खतरा होता है या कोई व्यक्ति इसी सूचना का प्रसारण या प्रचार करता है या कोई ऐसा विज्ञापन व सूचना प्रकाशित करता है जिसका अर्थ यह लगाया जा सकता हो कि इसमें घृणा को बढ़ावा देने या फ़ैलाने का आशय निहित है. उस समूह के व्यक्तियों के प्रति इसी घृणा उत्पन्न होने की सम्भावना के आधार पर वह व्यक्ति दुष्प्रचार का दोषी है. ऐसी प्रस्थिति में यदि कोई समाचार-पत्र आतंकवादियों के उन्माद भरे बयानों को प्रकाशित करता है तो उसका प्रकाशक अपराधी मना जायेगा. अर्थात फाँसी की सजा काट रहे आतंकवादियों का नाम प्रकाशित करने पर भी पाबंदी होगी. आतंकवाद के खिलाफ परिचर्चा, राष्ट्रीय सेमीनार का आयोजन करना भी अपराध माना जायेगा जो कि संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार को भी बाधित करेगा.


संगम,  सभा, या परिषद् – अधिनियम की धारा 3 (B) के अनुसार व्यक्तियों का ऐसा संगठन या समुच्चय जो पंजीकृत या निगमित हो या न हो.


अपराध  के लिए संगम, सभा, या परिषद् के वरिष्ठ अधिकारीयों का उत्तरदायित्व – धारा 15 (1) के अनुसार किसी संगम का कोई कार्यकर्त्ता या वरिष्ठतम अधिकारी या पद धारी अपनी कमान  के नियंत्रण पर्यवेक्षक के अधीन अधीनस्थों के ऊपर नियंत्रण रखने में असफल रहता है तो इस अधिनियम के अधीन यदि कोई अपराध किया जाता है तो वह अपने अधीनस्थों द्वारा किये गए अपराध का दोषी होगा. अर्थात किसी संगठन का सामान्य से सामान्य कार्यकर्त्ता भी इस अधिनियम के आधार पर यदि अपराधी सिद्ध होता है तो शीर्ष नेतृत्व भी अपराधी माना जायेगा.

सांप्रदायिक सामंजस्य, न्याय और क्षतिपूर्ति के लिए राष्ट्रीय प्राधिकरण – केंद्र सरकार इस अधिनियम के अधीन इसमें दी गयी शक्तियों का प्रयोग एवं कृत्यों का पालन करने हेतु ‘सांप्रदायिक सामंजस्य, न्याय और हानिपूर्ति राष्ट्रीय प्राधिकरण’ का गठन करेगी, जिसमे एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और पांच अन्य सदस्य होंगे. यह प्राधिकरण स्वयं अपने आप में एक सांप्रदायिक निकाय होगा क्योंकि अधिनियम की धारा 21 (3) के अनुसार प्राधिकरण में अधिनियम में परिभाषित समूह के चार सदस्य अध्यक्ष और  उपाध्यक्ष सहित अनिवार्य रूप से होंगे. अतः समूह के सदस्य सदैव बहुमत में रहेंगे.



मुझे इतिहास में पढाया गया था कि भारत का विभाजन 1947  में धर्म के आधार पर हुआ था जिसकी बुनियाद कई वर्ष पहले ही बाहर से आये हमारे ऊपर हुकूमत करने वाले अंग्रेजों द्वारा फूट डालो और शासन करो के रूप में रखी जा चुकी थी. दो सम्प्रदायों के बीच इतनी कड़वाहट घोल दी गयी थी कि ट्रेनें लाशों से भरी हुई इधर-उधर आ जा रही थी. इससे लगभग हम सभी भालिभाँती विदित है. तो क्या इस मौजूदा सरकार ने भी एक और विभाजन की तैयारी मनभेद पैदा कर शुरू कर दी है ऐसा मान लिया जाय ?

(राजीव गुप्ता-vision2020rajeev@gmail.com)

Wednesday, 20 July 2011

“Prevention of communal and targeted violence bill 2011 is laughabale and instead of dumping it burn it”

The brain storming session on Prevention of Communal and Targeted Violence held today at IPF seminar hall. A number of academicians, journalists, lawyers ,former  civil servants  and activists participated in the session. It was resolved that the bill  is an attempt to damn the basic structure of the Indian Constitution. Moreover,  it is an attack on the federal cahracter and a ploy to divert nation’s attention from the real issues the nation is facing.  Those present and spoke include : Sh R Venkatnarayanan, former Secretary , Govt of India, RNP Singh, a rtd officer from the Intelligence  Bureau, and mamaging editor of Eternal India, Rajesh Gogna, Rambahadur Rai, sr journalist and activist, Rajesh Gogna , sr Lawyer, Prof Rajvir Sharma(Pol Sc, University of Delhi) Prof Madhukar Shyam Chaturvedi(deptt of Pol Sc, Jaypur University), Satish Pednekar, (deputy Bureau Chief Jansatta), Prof Rakesh Sinha (hon, Director IPF). The Foundation received four papers dealing various dimensions of the Bill. IPF will publish a critique of the Bill and launch a massive publc discussion on the issue.
1. The Bill  dilutes and destroys the concept and sanctity of Indian citizenship- it devides indian Citizens in two categories , one, “Group” which consists of religious and linguistic minorities. No where in the constitution the term ‘minority’  is defined. The drafting committee brought Muslim . Christians and also SC/ST in the orbit of the Group. SC/ ST have been clubbed with so called minorities only to enjoy the privilege of not getting dubbed as communal. The Ministry of Minority Affairs when preparing the  Bill for the Equal Opportunity Commission(recommended by the Sachar Committee) too  tried to rope SC in the purview of the EOC. The same people who drafted the bill and sheding crocodile tears , recommemded to dereserve those Schedule caste constituenciese where substantial number of Muslims live. Two, “others” – rest of the citizens  defined as others.

  • It recommends two sets of CrPc for the Gropu and Others.
  • It  destroys the federal character, usurups the jurisdiction of the state.
  • It is a tool to amnd the constitution in a shrewd and simple manner.
  • It creates parallel authorities in the center and state
  • It makes the bureaucracy and police slave of the minority leadership
  • Minority veto is invented in tehBill.
  • Onus of communal riots is thrown on the Hindus
  • ‘Minorities’ are presented as permanenet ‘victims’ of the Hindu majority, policeforces, bureaucracy, judicairy.
  • Authorities created at the center was empowered to use Artilce 355  as a children’s toy.
  • It assumes “tyranny of the Hindu majoritarainsim”.

The Bill is not to be dumped but to be burnt. The civil soceity must take it seriously and defeat the larger conspiracy and the forces  behind the bill.